Book Title: Yogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Aatm Gyanpith
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योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन
४. निदानआर्तध्यान ।। (१) अप्रियवस्तुसंयोग आर्तध्यान
द्वेष से मलिन जाव को अनिच्छित विषय शब्दादि तथा ऐसी वस्तु से सतत् छुटकारा पाने का सतत् चिन्तन करना अप्रियवस्तु संयोग आर्तध्यान है। ___आचार्य शुभचन्द्र के अनुसार अग्नि, सर्प, सिंह, जल आदि चल तथा दुष्ट राजा, शत्रु आदि स्थिर और शरीर स्वजन धन आदि के निमित्त से मन को जा क्लेश होता है। वह अनिष्ट संयोग आतध्यान है। इस प्रकार का भाव बौद्धों ने दुःख नामक आर्यसत्य के अन्तर्गत स्वीकार किया है।
(२) प्रियवस्तुवियोग अथवा इष्टवियोग आर्तध्यान
पांचों इन्द्रियों के अनुकूल इष्ट एवं प्रिय पदार्थों की प्राप्ति के लिए छटपटाना, उन पदार्थो के साधनरूप चल-अचल अभीष्ट माता-पिता आदि स्वजन को प्राप्त करने की उत्कृष्ट अभिलाषा, भौतिक सूखों का संयोग सदा बना रहे ऐसी चिन्ता तथा उनके वियोग होने से भविष्य में दु:खी न होने की चिन्ता, यह आर्तध्यान का दूसरा भेद इष्टवियोग आर्तध्यान है । इसे भो बौद्धों ने प्रथम आर्यसत्य के रूप में माना है। १. स्यानाङ गसूत्र, प्रथम उद्दे० सूत्र १२, पृ० ६७५
तथा दे० औपपातिक सूत्र. तपोधिकार;
भगवतीसूत्र, शतक २५, उद्दे। ७; एवं तत्त्वार्थसूत्र, ६.३१-३४ २, अमग ण्णाणं सदाइविसयवत्यूणं दोसमइणस्त ।
धणियं वियोगचितणमसं पोगाणु परणं च ।। ध्यान श०, गा० ६ ३. दे। ज्ञानार्णव, २५.२५-२८ ४. दे, अभिधर्भ देशना : बौद्धसिद्धान्तों का विवेचन, चार आर्य सत्य नामक
अध्याय, दुःख आर्य सत्य की व्याख्या । ५. दे. स्पानाङ गसूत्र प्र.उ० सूत्र १२; भगवतीसूत्र, शतक २५, उद्दे० ७, तथा
औपपातिकसूत्र तपोधिकार. तथा ----इट्ठाण विसयाईण वेयणाए य रागस्तस्स । अवियोगऽजझवसाणं तहसंजोगाभिलासोय ॥ ध्यानशतक, गा० ८ तथा दे० मानार्णव, २५.३०-११
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