Book Title: Yogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Aatm Gyanpith
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योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन
उत्थान होता है और आत्म चिन्तन की ओर प्रवृत्त होने से रागभाव का उपशम होता है । अतः यह आत्मविकास का प्रथम सोपान है । स्थानांगसूत्र में इस ध्यान को श्रुत, चारित्र और धर्म से युक्त बतलाया गया है । धर्मध्यान उसमें होता है जो दशविध धर्मों का पालन करता है तथा प्राणियों की रक्षा करने के लिए सदा तत्पर रहता है । 2 प्रमाद से रहित तथा जिनका मोह क्षीण होने लगा है ऐसे ज्ञानी ही धर्मंध्यान का अधिकारी है । "
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धर्मध्यानी के लिए ध्याता, ध्येय, ध्यान उसका फल, स्वामी, ध्यान का स्थान, काल और अवस्था, ध्यान योग्य मुद्राओं को अच्छी प्रकार समझ लेना चाहिए ।"
निर्विध्न ध्यान देश, काल एवं परिथति के अनुसार सम्पादित होता है और इसके लिए ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वैराग्य उपेक्षित है। जिनसे सहज मन को स्थिर किया जाता है, कर्मास्रव अवरुद्ध होता है ओर वीतराग भाव को प्राप्त किया जाता है। आचार्य शुभचन्द्र और हेनचन्द्र ने ध्यान की सफलता के लिए मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ इन चार भावनाओं का चिन्तन उपयोगी बतलाया है ।
धर्मध्यान की सिद्धिहेतु आवश्यक निर्देश
ध्यान की सिद्धि के लिए विभिन्न निर्देश प्राचीन आचार्यो ने दिए - जैसा कि 'ध्याता ऐसी जगह कभी ध्यान न करे जहां स्त्री, पशु व
१. स्थानांगसूत्र ४.२४७
२. तत्त्वार्थाधिगमसूत्र, स्वोपज्ञ भाष्य ६ . २६
३. दे० ध्यानशतक, गा० ६३
४. तत्त्वानुशासन, श्लोक ३७ ५. वही, श्लोक ३८-३६
६,
ध्यानशतक, गाथा ३०-३४
७.
चतस्रो भावना धन्याः पुराणपुरुषाश्रिताः ।
मैत्र्यादयश्चिरं चित्ते विधेया धर्मस्य सिद्धये ॥ ज्ञानार्णव, २७.४ मैत्री प्रमोद कारुण्य माध्यस्थानि नियोजयेत् ।
धर्मध्यानमुपस्तु तद्धि तस्य रसायनम् ॥ यो० शा०, ४.११७
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