Book Title: Yogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Aatm Gyanpith
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योगविन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन
किस कारण से होती है तथा उनको नष्ट कैसे किया जा सकता है ।।
४. संस्थानविचय धर्मध्यान
लोक, द्वीप, समुद्र, द्रव्य, गुण-पर्याय, जीव आदि सभी पदार्थ किसी न किसी संस्थान अर्थात आकार को लिए हुए हैं। संस्थान रहित अर्थात् निराकार कुछ भी नहीं है, लोक के अन्तर्वर्ती सभी पदार्थ संस्थान वाले हैं, उनका चिन्तन करना अथवा पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ इनमें से किसी एक में मनोयोग देना संस्थानविचयधर्मध्यान है।
__ अनादि अनन्त किन्तु उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य परिणामी स्वरूप वाले लोक की आकृति का जिस ध्यान में विचार किया जाता है वह संस्थानविचय धर्मध्यान है। इस ध्यान में संसार के नित्य-अनित्य पर्यायों का चिन्तन होने से वैराग्य की भावना दृढ़ होतो है और साधक शुद्ध आत्म स्वरूप की ओर बढ़ता है।
किसी भी कार्य में सफलता के लिए अभ्यास नितान्त अपेक्षित है। ध्यान की सफलता के लिए भी अभ्यास की महती आवश्यकता है। ध्यान में सफलता के लिए पहले किसी स्थूल पदार्थ को आलम्बन बनाया जाता है फिर भी साधक स्थूल से सूक्ष्म की और बढ़ता है।
आलम्बन को ही दूसरे शब्दों में ध्येय कहा जाता है । ध्येय के चार भेद किए गए हैं
१. कर्मजातं फलं दतं विचित्रमिह देहिनाम् ।
आसाय नियतं नाम द्रव्यादिकचतुष्टयम् ॥ ज्ञानार्णव, ३५.२ २. दे० स्थानांगसूत्र, पृ० ६८४ ३. अनायनन्तस्य लोकस्य स्थित्युत्पत्तिव्ययात्मनः ।
आकृतिचिन्तयेत् यत्र संस्थानविचयस्तु सः ॥ यो० शा०, १०-१४
तया, ज्ञानार्णव, अध्याय ३६ ४. (क) अलक्ष्यं लक्ष्यसम्बन्धात् स्यूलात् सूक्ष्म विचिन्तयेत् ।
सालम्बाच्च निरालम्ब' तत्त्व वित् तत्त्वमञ्जसा ॥ ज्ञाना०, ३३,४ (त्र) स्थूले वा यदि वा सूक्ष्मे साकारे वा निराकृते ।
ध्यानं ध्यायेत स्थिरं चित्तं एकप्रत्ययसंगते ।। योगप्रदीप, श्लोक १३६
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