Book Title: Yogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Aatm Gyanpith

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Page 265
________________ 208 योगविन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन (५) तत्ववतीधारणा इसमें सात धातुओं से रहित चन्द्रमा के समान उज्ज्वल तथा सर्वज्ञ के समान शुद्ध आत्म स्वरूप का चिन्तन करना बतलाया गया है। पुनः सिंहासनस्थ अतिशयों से युक्त महिमासम्पन्न अपने शरीर में स्थित निराकार आत्मा का चिन्तन करना चाहिए । यही तत्त्ववती धारणा है । इस पिण्डस्थ ध्यान का अभ्यास करने वाला योगो मोक्ष के अनन्त सुख को प्राप्त करता है। इन धारणाओं से युक्त पिण्डस्थ ध्यान का अभ्यास करने वाले साधक पर दुष्ट विधाएं उच्चाटन मारण आदि का कोई प्रभाव नहीं होता और शाकिनी, पिशाच आदि शक्तियां भी उसके समक्ष निस्तेज हो जाती हैं। दुष्ट हाथी, सिंह आदि हिंसक प्राणी भी उस साधक पर घात करने में असमर्थ रहते हैं। पदस्थध्यान इस ध्यात के अन्तर्गत साधक अपने को बार-बार एक ही केन्द्र पर स्थिर करता है और मन को अन्य विषयों से पराङ मुख बनाकर केवल सूक्ष्म वस्तु को ध्यान का विषय बनाता है। अपनी रुचि तथा अभ्यास के अनुसार मन्त्राक्षर पदो का आलम्बन करके जो ध्यान किया जाता है, १. (क) सप्तधातुविमान पूर्णेन्दुविशद तिम्। सर्वज्ञकल्पमात्मानं शुद्धबुद्धिः स्मरेत्ततः ॥ यो० शा०, ७.२३ तथा २४-२५ सप्तधातुविनिमुक्तं पूर्ण वन्द्रामलत्विषम् । सर्वज्ञकल्पमात्मानं ततः स्मरति संयमी ॥ ज्ञाना०, ३७.२८ तथा अधिक के लिए दे० गा० २६-३० २. (क) अधान्त मितिपिण्डस्थे कृताभ्यासस्य योगिनः । प्रभवन्ति न दुर्विधा मन्त्रमण्डलशक्तयः ।। यो• शा० ७.२६ तथा २७-२८ (ख) विधामण्डलमन्त्रयन्त्रकुहकक्रूराभिचाराः क्रियाः, सिंहाशीविषदेत्यदन्तिशरमा यान्त्येव निःसारताम् । (ग) शाकिन्यो ग्रहराक्षसप्रभृतयो मुन्चन्त्यसद्वासनां । एतद्धयानधनस्य सन्निधिवशाद् भानोर्यथाकौशिकाः ॥ ज्ञाना० ३७.३३ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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