Book Title: Yogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Aatm Gyanpith
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190 योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन आर्तघ्यान के लक्षण
शास्त्रकारों ने आर्तध्यान के चार लक्षण भी बताए हैं वे हैं :१. क्रन्दन अर्थात् रोना ३. आंसू बढ़ाना और २. शोक करना। ४. विलाप करना।
ये चारों ही आर्तध्यान को पहचान हैं । जिस व्यक्ति में ये लक्षण पाए जाते हैं, वह आर्तध्यानी होता है। आर्तध्यान की त्रिविध लेश्याएं
आर्तध्यान की लेश्या तीन प्रकार की हैं, वे हैं--- कृष्ण, नील एवं कापोत ।
इस ध्यान में अज्ञान की प्रधानता होती है, रागद्वेष अधिक बढ़ जाता है, जिसके कारण जीव सदा भयभीत, शोकाकुल सन्देहशील, प्रमादी, कलहकारो, विषयी, निद्रालु, सुस्त, खेदखिन्न तथा मूर्छा-ग्रस्त रहने लगता है।
आर्तध्यानी की बुद्धि स्थिर नहीं रहती। वह रागद्वेष के कारण संसार में परिभ्रमण करता है। ऐसे कुटिल चिन्तन के कारण वह तिर्यञ्चगति में गमन करता है।
। उसका मन आत्मा से हठकर सांसारिक पदार्थों पर केन्द्रित रहता है और इच्छित अथवा प्रिय वस्तुओं के प्रति अतिशय मोह करता है १. अदृस्सणं झाणस्स चत्तारिलक्खणापण्णता, तं जहा-कंदणया सोयणया,
तिप्पणया, परिदेवना । स्थानां० प्र० उ०, सूत्र १२ तथा दे. भगवतीसूत्र शतक २५, उद्दे० ७, औपपातिकसूत्र तपोधिकार
लेश्या के विषय में अगला अध्याय देखिए ३. कावोयनीलकालालेस्साओनाइसंकिलिटठाओ।
अट्टज्झाणोवगय-स कम्मपरिणामजणियाओ ॥ ध्यान श०, गा० १४
तथा दे. ज्ञाना०, २५.४० ४. ज्ञानार्णव, २५.४३ ५. रागो दोसो मोहो य जेण संसारहेयवो भणिया ।
अट्ट मि य ते तिगिवि, तं तं संसारतरु बयिं ॥ ध्यान श०, गा० १३
२.
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