Book Title: Yogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Aatm Gyanpith
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परिच्छेद-चतुर्थ योग : ध्यान और उसके भेद
योगसाधना में ध्यान का सर्वोपरि स्थान है । ध्यान की प्रक्रियाओं का प्रारम्भ पूर्व वैदिककाल में ही हो चुका था। कोई भी आध्यात्मिक उपलब्धि बिना ध्यानसाधना के भी प्राप्त होना सम्भव नहीं है क्योंकि पवित्र साधन से ही पवित्र साध्य की उपलब्धि होती है। योग, समाधि और ध्यान शब्द प्रायः एक दूसरे के पर्यायवाची हैं। अत: ध्यान का आध्यात्मिक क्षेत्र में अत्यधिक महत्त्व है।
ध्यानसाधना के लिए हमारे ऋषि, यति और मुनिगण प्रायः कन्दराओं में ध्यानरत होते थे और इस योग आदि साधनाओं द्वारा वे स्वर्गत्व, अमरत्व, ईश्वरत्व, आत्मत्व एवं ब्रह्मत्व का लाभ कर अपना लक्ष्य सिद्ध करते थे । अतः योगी अथवा मुमुक्षु साधक के लिए ध्यान अत्यावश्यक है।
ध्यान शब्द ध्यै चिन्तायाम् धातु से चिन्तन अर्थ में 'ल्युट' प्रत्यय लगने पर निष्पन्न होता है। कहा भी है। कि निष्पन्नार्थो हि एष धातुः' अर्थात् जिसके द्वारा तत्त्व का मनन किया जाए, एकाग्र-चिन्तन किया जाए, उस प्रक्रिया का नाम ध्यान है।
(क) जैन ध्यानयोगः ध्यान के तत्त्व
भारतीय साधना में जैन ध्यानयोग का अपना विशिष्ट स्थान है। दूसरे शब्दों में कहें तो ध्यानसाधना ही जैन साधना का पर्याय बन गयी है। इसीलिए यहां ध्यान का जितना विस्तृत एवं सूक्ष्म वर्णन हुआ है, उतना अन्यत्र दृष्टिगोचर नहीं होता। जैन मान्यतानुसार संयम अथवा चारित्र की विशुद्धि के लिए ध्यान सर्वोत्तम साधन माना गया है। ध्यान का लक्षण एवं भेद १. दे० संस्कृत हिन्दी कोश, पृ० ५०२ २. दे० अभि० को० भा०, पृ० ४३३ तथा अर्थविनि०, पृ० १७६
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