Book Title: Yogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Aatm Gyanpith
View full book text
________________
184
योगविन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन
अभ्यास तथा मन: स्थिरता का ध्यान की सिद्धि के लिए विशेष महत्त्व बतलाया गया है । ध्यान के अंग
ध्यान के निम्नलिखित अंग हैं--पूरक, कुम्भक, रेचक, दहन, प्लवन, मद्रा, मन्त्र, मण्डल, धारणा, कमाधिष्ठाता, देवों का संस्थान, लिंग, आसन, प्रमाण और वाहन आदि--जो कुछ भी शान्त क्रूर कर्म के लिए मन्त्रवाद आदि के कथन हैं वे भी सभी ध्यान के अंग हैं। संक्षेप में आचार मीमांसा की सारी ही बातें ध्यान के अन्तर्गत परिगणित होती हैं।
वास्तव में जप, तप, व्रत और ध्यान आदि सभी क्रियाएं बिना स्वच्छ-शुद्ध मन के करने से अभीष्ट की उपलब्धि नहीं होती क्योंकि मन की शुद्धि ही वास्तविक शुद्धि है । इसके अभाव में व्रतों का अनुष्ठान वथा दह दण्ड मात्र है। इसके लिए इन्द्रियों का नियन्त्रण आवश्यक है, जब तक इन्द्रियों का नियन्त्रण नहीं होता तब तक कषायों का क्षय भी नहीं होता। अतः ध्यान की शुद्धता अथवा सिद्धि ही कर्मसमूह को नष्ट करती है और आत्मा का ध्यान शरीरस्थित आत्मा के स्वरूप को जानने में समर्थ होता है क्योंकि ध्यान जहां सब अतिचारों का प्रतिक्रमण है वहां आत्मज्ञान की प्राप्ति से ही कर्मक्षय यथा कर्मक्षय से १. ध्यानस्य च पुनर्मु ख्यो हेतुरेतच्चतुष्टयम् ।
गुरुपदेशः श्रद्धानं सदाभ्यासः स्थिरं मनः ॥ तत्त्वानुशासन, श्लोक २१८ २. वही, श्लोक २१३-२१६ ३. कि व्रते: किं व्रताचार: किं तपोभिर्जपश्च किम् ।
कि ध्यानैः किं तथा ध्येयैर्न चित्तं यदि भास्वरम् । योगसार, श्लोक ६८ ४. मनः शुद्ध्यैव शुद्धिः स्याद्देहिनां नात्र संशयः ।
वृथा तद्व्यतिरेकेण कायस्यैव कदर्थनम् ॥ ज्ञाना०, २२.१४ ५. अदान्तरिन्द्रियह्यश्चलैरपथगामिभिः । यो० शा०, ४.२५,८ ६, दे. ज्ञानार्णव, २०.१४ ७. ' एवमम्यासयोगेन ध्यानेनानेन योगिभिः ।
शरीरांतः स्तिः स्वात्मा यथावस्थोऽवलोक्यते ।। योगप्रदीप, श्लोक १६ झाणाणिलीगो साहू परिचागं कुणइ सबदोसाणं । तम्हा दुझाणमेव हि सत्रदिचारस्स पडिकमणं ॥ नियमसार, गा० ६३
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org