Book Title: Yogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Aatm Gyanpith
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योगबिन्दु की विषय वस्तु
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कारण योगी साधक जगत को समभाव पूर्वक देखता हुआ किसी का भी प्रिय व अप्रिय नहीं करता बल्कि वह अपने को माध्यस्थभाव में स्थिर रखना ही समुचित समझता है।
इस जगत् में जब कोई वस्तु नित्य हो तब तो उस पर राग किया जाए किन्तु जब सभी वस्तुएं अनित्य हैं, तब उन पर रागभाव क्यों करना ? अतः साधक का सदैव मध्यस्थ ही रहना उपयुक्त है।
इन चार भावनाओं के निरन्तर चिन्तन मनन से अध्यात्म योगी साधक की आत्मा में ईर्ष्या भाव का नाश और करुणा का संचार होता है तथा गुणानुराग एवं राग-द्वेष की निवृत्ति होतो है जिसमें साधक योगसाधना करने में सम्यक् प्रकार से प्रवृत्ति कर सक्षम बनता है।
इस प्रकार के अध्यात्म योग के स्वरूप को जो साधक आत्मसात् कर लेता है, उसके पापों का नाश और वीर्य का उत्कर्ष होता है। चित्त भी प्रसन्नता होता है तथा वस्तुतत्त्व का बोध एवं आत्मानुभव रूप अमतत्व की प्राप्ति होती है।
(२) भावना (वैराग्य भावना)
__आचार्य हरिभद्रसूरि के अनुसार योग की दूसरी भूमि है-भावना। भावना का जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान है। भाव शब्द से भावना शब्द बना है-भावतीति भावना । भाव का अर्थ है-विचार अथवा अभिप्राय । आचार्य शीलांक ने भाव को स्पष्ट करते हुए कहा है१. सव्वं जगं तू समयाणुपेही, पियम प्पियं कस्स वि नो करेज्जा।
सूत्रकृता०, १.३०.६ २. स्याद्य दि किञ्चित् स्थायिवस्तु तत्र रुचि: स्यादुचिता नास्ति स्थिरं
किञ्चिद् अपि दृश्यम्, तस्मात् स्यात् साऽनुचिता ॥ भावना शतक,
माध्यस्य भावना, श्लोक २ ३. सखीा दुःखितोपेक्षा पुण्यद्वषमिष ।
रागद्वेषीत्येन्नेता लब्ध्वा अध्यात्म समाचरेत ।। योगभेद द्वात्रिंशिका ७ __ अतः पापक्षयः सत्त्वं शीलं ज्ञानं च शाश्वतम् । तथानुभवसंसिद्धममृतं ह्यद एव तु ॥ योगबिन्दु, श्लोक ३५६ तथा मिला० योगभेद द्वात्रिंशिका, श्लोक ८
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