Book Title: Yogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Aatm Gyanpith
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152 योबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन की कठपुतली बनने वाले धन को धिक्कार है ।।
यहां आचार्य कहते है कि लक्ष्मी समुद्र की तरंगों के समान चंचल है, प्रियजनों का संयोग स्वप्नवत् क्षणिक है और यौवन वायु के समूह द्वारा उड़ाई गई आक (पौधा विशेष) की रुई के समान अस्थिर है। ऐसे वैचित्र्य प्रधान जगत् की नश्वरता देखकर मानव को अपने स्थिर चित्त से क्षण-क्षण में तृष्णारूपी काले भुजंग का नाश करने वाले निमर्मत्व भाव को जागृत करने के लिए अनित्यभावना का सदैव चिन्तन करना चाहिए।
इस तरह जो समस्त विषयों को क्षणभंगुर जानकर उनके प्रति अवशिष्ट महामोह को त्याग कर मन को निविषय बनाता है वह सुख को प्राप्त होता है। (२) अशरणभावना
अनित्यता का बोध होने पर साधक को विचार करना चाहिए कि जो वस्तू अनित्य है तो वह हमारी रक्षक भी नहीं हो सकती। अनित्य पदार्थ कालशत्र के द्वारा आक्रमण करने पर मानव को शरण देने में असमर्थ हैं, जो स्वयं ही स्थिर और अशाश्वत हैं, वह मृत्यु से बचाने में कैसे समर्थ हो सकता है। अशरणभावना का दिग्दर्शन कराते हुए उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि जैसे कोई सिह जब मृगों के समूह में से किसी एक
१. दायादाः स्पृशयन्ति तस्करगणाः मुष्णन्ति भूमीभुजो
गृहन्ति च्छलमाकल.य्यहुतभुग भस्मी करोति क्षणात् । अम्भः प्लावयति क्षितो विनिहतं, यक्षा हरन्ते हठाद् दुर्वतास्तनया नयन्ति निधनं, धिक् बह्वधीनं धनम् ॥ सिन्दूरप्रकरण,
श्लोक ४४ २. कल्लोलचपलालक्ष्मीः संगमाः स्वप्नस न्निभाः ।
वात्याव्यतिरेकोत्क्षिप्ततूल तुल्यं च यौवनम् ॥ योगशास्त्र, ४.५६ इत्यनित्यं जगद्वृत्तं स्थिरचित्तः प्रतिक्षणम् ।
तृष्णा-कृष्णहि मन्त्राय निर्ममत्वाय चिन्तयेत् ॥ वही, ४.६० ४. चइऊण महामोहं विसए सुणिऊण भंगुरे सव्वे ।
णिविसयं कुणह मणं जेण स हं उत्तमं लहह ॥ स्वामि कार्तिकेयानुप्रेक्षा, श्लोक २२
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