Book Title: Yogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Aatm Gyanpith
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158 योग बिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन जा रहे हैं। कोई भी ऐसा दिन नहीं जिस दिन कोई काल कवलित न हो
अहन्यहनि भूतानि गच्छन्ति यममन्दिरम् । शेषा स्थावर मिच्छन्ति किमाश्चर्यमतः परम ।।
इस प्रकार संसार के स्वरूप को जानकर सम्यक्त्व, व्रत, ध्यान आदि समस्त उपायों से मोह को त्याग कर अपने शुद्ध ज्ञानयम स्वरूप का ध्यान करना ही श्रेयस्कर है
इयं संसारं जाणिय मोहं सव्वायरेण चइऊण । तं झायह ससहावं संसरणं जेण णासेइ॥
अतः संसार की विचित्रता का चिन्तना मनन करते रहना सुख-दुःख रूप इस संसार से विरक्त होना तथा उससे छूटने का निरन्तर विचार करना ही संसारभावना है।
(४) एकत्वभावना
एकत्वभावना में यह चिन्तन स्फुरित होता है कि दुःख रूपी ज्वालाओं से जलते हुए संसार में सारभूत तत्त्व क्या है ? धन, परिवार आदि सभी तो अनित्य और अशाश्वत है तब फिर इस विश्व में शाश्वत और सारभूत तत्त्व क्या है ? कौन ऐसी वस्तु है जो जीव के साथ-साथ सदैव चलती है। जब साधक ऐसी वस्तु की खोज करता है तब उसे ज्ञात होता है कि आत्मा ही केवल शाश्वत है और यह एकमात्र नित्य एवं एकाकी है। इस संसार में उसका कुछ भी नहीं और वह भी किसी का नहीं है।
अतः साधक को आत्मा के शुद्ध स्वरूप का चिन्तन करना चाहिए, जो कि एक विशुद्ध, अरूपी और ज्ञान-दर्शन स्वरूपी है। इसके अतिरिक्त जो बाहर दिखाई पड़ते हैं, माता-पिता, धन-वैभव आदि सभी आत्मा से भिन्न हैं, शरीर और आत्मा सर्वथा अलग-अलग हैं
१. महाभारत, वनपर्व, युधिष्ठिर यक्षसंवाद २. स्वामि कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गा० ७३ ३. एगे अहमंसि न मे अत्थि कोई, न या ह मवि कस्स वि ।। आचारांग० १.८.६
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