Book Title: Yogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Aatm Gyanpith
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160 योगविन्दु के परिप्रेक्ष्य में जन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन
और शरीरी दो पृथक् पृथक् तत्त्व हैं। शरीरादि जड़ हैं जबकि आत्मा चेतन तत्त्व है । अतः उनका परस्पर एकत्व भाव नहीं है क्योंकि दोनों का स्वभाव भिन्न-भिन्न है।' देह में अपनत्व वृद्धि होना अज्ञान जन्य है और देह का आत्मा से पृथकत्व बोध होना ही सद्ज्ञान है।'
यही भेद विज्ञान है, जो सम्यग्दृष्टि साधक का प्रथम लक्षण है। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि--जो साधक अपने शुद्ध स्वरूप की अनुभूति करता है वही शुद्ध भाव को प्राप्त होता है और जो अशुद्ध भाव का चिन्तन करता है, वह अशुद्ध भाव को प्राप्त करता है । गुणदृष्टि से सिद्धात्मा और संसारी आत्मा में कोई अन्तर नहीं है-जा रिसिया सिद्धप्पा भवमल्लिय जीवा तारिसा होती इसका चिन्तन करने से आत्मा तद्रूप होता है।
अतः आत्मा के विशुद्ध स्वरूप का चिन्तन करना चाहिए, जो बाह्य सम्बन्ध से केवल मृत्यु पर्यन्त ही है। इससे सिद्ध होता है कि वे आत्मा से भिन्न अन्य पदार्थ हैं। शास्त्र में भी कहा है-जब शरीर से प्राण निकल जाते हैं, तब तुच्छ शरीर को श्मशान में ले जाकर जला देते हैं और पत्नी पुत्र आदि अन्य दाता-संरक्षक की शरण लेते हैं ।
धन, पशु, ज्ञातिजन आदि को शरण मानने वाले मूढ़ हैं। वह इनके स्वभाव से परिचित नहीं है । वस्तुतः न ये किसी के रक्षक हैं और न इनका कोई रक्षक है। दोनों का सम्बन्ध क्षणिक और कृत्रिम हैं१. क्षीरनीरवदेकत्र स्थितयोर्देह देहनोः ।
भेदो यदि ततोऽन्येषु कलत्रादिषु का कथा ॥ पंचविं, ६.४६ तया मिला-अन्यत्वभावनाशरीरस्य वैसादृश्याच्छरीरिणः ।
धनवन्ध सहायानां तत्रान्यत्वं न दुर्वचम् ॥ यो० शा०, ४.७० २. देहोऽहमिति या बुद्धिरवि या सा प्रकीर्तिता ।
नाहं देहश्चिदात्मेति बुद्धिविद्येति भण्यते ॥ अध्या०रा०, अयो०का० श्लोक ३३ ३. सद्ध तु वियाणतो सुद्ध चेत्रप्पयं लहइ जीवो।
जाणतो असु द्धं असुद्धप्पयं लहई ॥ समयसार, गा० १८६ ४. नियमसार, गा० ४७ ५. तं इक्कगं तुच्छसरीरगं से चिईगयं इशिउपावगेणं ।
भज्जा य पुत्ता वि य नायओ य दायारमन्नं अणुसंकमन्ति ॥ उत्तरा०, १३.२५
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