Book Title: Yogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Aatm Gyanpith
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योगबिन्दु का विषय वस्तु
वित्तं पसवो य नाइओ, तं बाले सरणं ति मन्नइ ।
एए मम तेसु वि अहं नो ताणं सरणं विज्जई ॥ .. ये कामभोग भी अन्य हैं और उनसे भिन्न यह आत्मा है। जब कामभोग वैभवादि आत्मा को किसी भी समय छोड़ सकते हैं तब फिर इनमें मूर्छा अर्थात् आसक्ति कैसी ?
अन्ने खलु काम भोगा, अन्नो अहमंसि ।
से कि मंग पुणवयं अन्नमन्नेहि कामभोगेहि मुच्छामो । यह आत्मा स्वभाव से शरीरादि से विलक्षण भिन्न है। जो महामति साधक अन्यत्वभावना से अपनी आत्मा को भावित करता है, उसके बाह्म पदार्थों का पूर्णतया नाश होने पर भी वह शोक नहीं करता, क्योंकि जो आत्म तत्त्व है उसे कोई छिन्न-भिन्न अथवा नष्ट नहीं कर सकता।
शरीरादि से आत्मा के भिन्न-चिन्तन को अन्यत्व अनुप्रेक्षा कहते हैं। अन्यत्व का चिन्तन करते हए भी यदि यथार्थ में भेदज्ञान न हुआ, तो वह चिन्तन भी कार्यकारी नहीं होता ।
इस प्रकार समस्त पर पदार्थों से आत्मा को सदा भिन्न जानना तथा आत्मा और शरीर में अन्यत्व का बोध रखना, यही अन्यत्वभावना १. सूत्रकृतांगसूत्र, १.२.३१६ २. वही, २.१.१३, पृ० ७५ ३. अयमात्मास्वभावेन शरीरादेविलक्षणः । ज्ञानार्णव सर्ग २, अन्यत्व भा०
श्लोक १ ४. अन्यत्वभावनामेवं यः करोति महामतिः।। ___ तस्य सर्वस्वनाशेऽपि, न शोकाँशोऽपि जायते ॥
प्रवचनसारोद्धार भाग-१, द्वार ६७, अन्यत्वभावना, श्लोक १ ५. नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयति आपो, न शोषयति मारुतः ।। गीता २.२३ तथा मिला०-सुहं वसामो जीवामो, जेसि मे नत्थि किंचण ।
मिहिलाए डज्फमाणीए, न मे डन्सइ किंचण ।। उत्तरा०, ६.१४ ६. एवं बाहिरदग्वं जाणदि रूवा दु अप्पणो भिण्णं ।
जाणंतो वि हु जीवो तत्थेव हि य रच्चदे मूढो ॥ स्वामि कार्ति०, गा० ८१
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