Book Title: Yogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Aatm Gyanpith
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योगबिन्दु की विषय वस्तु मृग को उठा कर ले जाता है, शेष सभी मृग दूर खड़े देखते रह जाते हैं बल्कि अपनी-अपनी जान बचाने के लिए इधर-उधर छिप जाते हैं तब कोई भी उसे सिंह के मुख से छुड़ाने में समर्थ नहीं होता, वैसे ही स्थिति संसारी मनुष्यों की है। उसे मृत्यु के मुख से कोई भी नहीं छुड़ा सकता
जह सीहो व मियं गहाय, मच्चू नरं नेइ हु अन्तकाले। न तस्स माया व पिया व भाया, कालम्मि तम्मं सहरा भवंति ॥
काल मृत्यु के सामने किसी को कुछ भी नहीं चलती, वह बड़ा बलवान् है। जब कालरूपी सिंह आता है तो माता-पिता, भाई-बन्धु आदि सभी एक ओर खड़े हो देखते रहते हैं, विवश होकर बिलखते तो हैं ही किन्तु किसी में इतनी शक्ति नहीं कि वे उस प्राणी को काल के मुख से बचा लें।
काल ऐसा निर्दयी है कि किसी को भी अपने पंजे से नहीं छोड़ता। राजा हो, या रंक, चक्रवर्ती हो अथवा तीर्थकर देव भी क्यों न हो उससे कोई भी नहीं बच पाता । काल के आक्रमण होने पर सभी के सारे के सारे उपाय रखे रह जाते हैं। कुछ भी काम नहीं आते। यदि कुछ काम आता भी है तो वह है मनुष्य का निष्काम भावमयी ज्ञान, मैत्रीगुण और सद्ववहार । चाहे प्राणी वज्र के समान सशक्त सुदढ भवन में प्रविष्ट होकर उसके द्वार ही बन्द क्यों न कर लें और सोचे कि जहां काल नहीं आएगा, अथवा उसके आने पर सत्त्व प्राणों की भीख मांगे, तब भी मृत्यु उसे नहीं छोड़ती। इसी का तो नाम समदर्शी है जो छोटे-बड़े सभी को अपना भोज्य बना लेती है।' १. उत्तराध्ययनसूत्र १३.२२ २. पितुमातुः स्वसुओतुस्तनयानाञ्च पश्यताम् ।
अत्राणो नीयते जन्तुः कर्मभिर्यमसद्मनि ॥ यो०शा० ४.६२ ३. ऐसा ही भाब घम्मपद गाथा १२८ में भी व्यक्त किया गया है यथा ___न अन्तलिक्खे न समुद्दमज्झे न पब्बतानं बिविरं पविस्स।
न विज्जतो सो जगतिप्पदेसो यत्थट्टितं न प्पसहेय्य मच्चू । ४. प्रविशति वज्रमये यदि सदनेतृणमथ घटयति वदने ।
तदपि न मुंचति हत समवती निर्दय पौरुषवर्ती । वियन ! विधीयतां रे श्री जिनधर्मशरणम् ॥ शा०रस० भा० २.३
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