Book Title: Yogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Aatm Gyanpith
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योगबिन्दु की विषय वस्तु
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होना अर्थात् अनुकम्पा ही करुणा है । कहा भी है- दीन दुःखी जीवों पर मेरे उर से करुणा स्रोत वाहे । "
इस प्रकार करुणा की भावना से साधक अहंकार शून्य होकर, दूसरों के प्रति समर्पण की भावना से भर जाता है और अपने सुख की परवाह न कर दूसरों को सुख देकर समाधिस्थ होता है । यही करुणा है ।
माध्यस्थभावना
विपरीत वृत्ति वाले और क्रूर कर्मी व्यक्ति के प्रति भी साधक को मन में द्वेष नहीं लाना चाहिए अपितु उसके प्रति उपेक्षा का भाव रखे, यही माध्यस्थ भावना है । इससे साधक के मन की प्रसन्नता अविच्छिन्न बनी रहती है और समता का सम्पूर्ण विकास होता है इसी लिए आचारांगसूत्र में साधक को सम्बोधित करके कहा गया है कि - अपने धर्म के विपरीत रहने वाले व्यक्ति के प्रति भी उपेक्षा का भाव रखे, जो प्राणी अपने विरोधी के प्रति उपेक्षावान् (तटस्थता ) रखता है और उसके कारण उद्विग्न नहीं होता, वह ही सर्वश्रेष्ट ज्ञानी है क्योंकि जो साधक मनोज्ञ भावनाओं में आसक्त होता है, वह मन के प्रतिकूलभाव मिलने पर उनसे द्वेष भी करता है । इस प्रकार वह कभी सुखी और कभी दुःखी बना रहता है । दोनों ही स्थितियों में वह छटपटाता भी रहता है । '
जो प्राणी क्रोधी है, निर्दयी अथवा क्रूरकर्मी, मधु, मांस एवं मद्य और परस्त्री सेवन - लोभी है तथा जो व्यवसनों में आसक्त है ऐसे प्राणियों में तथा अत्यन्त पापी एवं देव गुरु की निन्दा करने वाले और अपनी प्रशंसा करने वाले प्राणी के प्रति सत्त्व का द्वेष से रहित होकर,
१. शारीरं मानसं स्वाभाविकं च दुःखमसह्याप्नुवती दृष्टवा हा बराका । मिथ्यादर्शनेनाविरत्या कषायेणाऽशुभेन योगेन च समुपार्जिताशुभकर्मपर्याय पुद्गल स्कन्धतदुपोदभवा विपदी विवशाः प्राप्नुवन्ति इति करुणा > अनुकम्पा भगवती आ० विवरण
२.
दे० मेरो भावना
३. उवेहएणं बहिया य लोगं, से सव्वलोगम्मि जे केइ विष्णू |
आचारांग सूत्र १.४.३
४, एगन्तरत्ते रुइरंसि भावे, अतालि हो कुणइ ओसं ।
दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले, नं लिप्पइ तेण मुणी विरागी ॥ उत्तरा० ३२.६१
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