Book Title: Yogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Aatm Gyanpith
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योगबिन्दु की विषय वस्तु
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आचार्य कुन्दकुन्द ने भी भावना के स्थान पर अनुप्रेक्षा शब्द का प्रयोग किया है और बारह भावनाओं पर बारस अणुवेक्खा नामक स्वतन्त्र ग्रंथ की रचना की है। स्वामिकार्तिकेय ने भी भावना को अधिक महत्व देकर एक अनुपम ग्रंथ 'स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा' की रचना की है।
उत्तराध्ययनसूत्र में भी 'अणुपेहा' शब्द आध्यात्मिक चिन्तन के अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है। वहां गौतम स्वामी ने पूछा है-भन्ते ! अनुप्रेक्षा (अनुपेहा) से जीव को किस फल की प्राप्ति होती है ।।
. भगवान् ने उत्तर में बतलाया है कि अनुप्रेक्षा (वैराग्य भावना, तत्त्व चिन्तन) से जीव आयुष्कर्म को छोड़कर सात कर्मप्रकृतियों में सघन वन्ध वाली प्रकृति की शिथिल, दीर्घकालीन एवं तीन अनुभाववाली प्रकृति को अल्पकालीन तथा मन्द अनुभाव वाली बनाता है।
आचार्य हरिभद्रसूरि ने भावना को ध्यान की पूर्व भूमिका माना है। इनके अनुसार पूर्वकृत अभ्यास के द्वारा भावना बनती है और भावना का पुनः-पुन: अभ्यास करने पर ध्यान की योग्यता प्राप्त होती है।
इस प्रकार भावना, अनुप्रेक्षा और ध्यान ये तीनों शब्द' प्रायः समानार्थक से लगते हैं फिर भी अनुप्रेक्षा और भावना तो निःसन्देह एक ही अर्थ के वाचक हैं। भावना के विषय में कहा गया है कि-'भावना भवनाशिनी' अर्थात् शुभ भावना साधक के जन्म मरणरूप भवपरम्परा को समाप्त करती है।
सूत्रकृतांगसूत्र में कहा गया है कि जिस साधक की आत्मा भावनायोग से शुद्ध हो गई है, वह साधक जल में नौका के समान है। जैसे नौका तट पर विश्राम करती है वैसे ही भावनायोग से शुद्ध साधक को भी परम शक्ति प्राप्त होती है
भावनाजोगशुद्धप्पा जले दावा व आहिया।
णावा व तीरसम्पन्ना, सव्वदुक्खाति उट्टई ।।। १. उत्तराध्ययनसूत्र, २६.२२ २. पुवकराव्भासो भावणाहि झाणस्स जोग्गय मुवेइ । ध्यानशतक, गा० ३० पर
हारिभद्रीय टीका। ३. सूत्रकृतांगसूत्र, १.१५.५
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