Book Title: Yogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Aatm Gyanpith
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118 योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन गई हैं। दूसरे शब्दों में प्रथय चार दृष्टियों को अवेद्यसंवेद्यपदा अथवा प्रतिपाति तथा अंतिम चार दृष्टियों को संवेद्यपद' अथवा अप्रतिपाति कहा गया है।
इन आठ दृष्टियों में साधक को किस प्रकार का ज्ञान अथवा विशेषतत्त्व का बोध होता हैं ? आचार्य ने उसको आठ दृष्टियों के द्वारा सोदाहरण यों समझाया है
(१) तृणाग्नि, (२) कण्डाग्नि (३) काष्ठाग्नि (४) दीपकाग्नि (५) रत्न की प्रभा (६) नक्षत्र की प्रभा (७) सूर्य की प्रभा एवं (८) चन्द की प्रभा'।
जिस प्रकार इन अग्नियों को प्रभा उत्तरोत्तर तीव्र और स्पष्ट होती जाती है उसी प्रकार इन आठ दृष्टियों में भी साधक का आत्मबोध स्पष्ट होता जाता है।
पातञ्जल योगदर्शन में प्रतिपादित यम-नियम आदि योग के आठ अंगों तथा खेद, उद्वेगादि आठ दोषों के परिहार का वर्णन भी इन दृष्टियों के प्रसंग में किया गया है । वे आठ दृष्टियाँ हैं
मित्रादृष्टि
इस दृष्टि में दर्शन की मन्दता अहिंसादि यमों के पालन करने की भावना और देवपूजन आदि धार्मिक क्रियाओं के प्रति लगाव रहता है। यद्यपि साधक को इस दृष्टि में ज्ञान तो प्राप्त हो जाता है, किन्तु उसे
१. अवेद्यसंवेद्यपदं यस्मादास तथोल्वपम् ।
पक्षिच्छायाजलचर-प्रवृत्त्याभमतः परम् ॥ योगदृष्टि०, श्लोक ६७ प्रतिपातयुताश्चाऽधाश्चतस्रो नोत्तरास्तथाः। सापायऽपि चेतास्ताः प्रतिपातेन नेतराः ॥ वही, श्लोक १६
दे० योगदृष्टि समु०, श्लोक ७० पर व्याख्था, पृ० २२ ४. तृणगोमयकाष्ठाग्निकणदीपप्रभौपमा।
रत्नतारार्कचंद्राभ। क्रमेणेक्ष्वादिसन्निभा ॥ योगावतार द्वात्रिंशिका, २६ ५. यमादियोगयुक्तानां खेदादिपरिहारतः ।
अद्धेषादिगुणस्थानं क्रमेणेषा सतां मता ॥ योगदृष्टिसमु०, श्लोक १६ ६. मित्राद्वात्रिंशिका, श्लोक १
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