Book Title: Yogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Aatm Gyanpith
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योगबिन्दु की विषय वस्तु
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इष्ट- इच्छित लक्षित नगर की ओर यथाशक्ति गमन करने वाला पुरुष विशेष है । इसे इष्टपुर - पाथिक भी कहा जाता है, इसकों जिसने गुरुविनय आदि की परिपूर्ण उपलब्धिरूप योग को तो आत्मसात चाहें नहीं किया है फिर भी उस पर जो यथाशक्ति प्रगतिशील है, उसे ही योगी कहा जाता है ।
योगियों के भेद
आचार्य हरिभद्रसूरि ने चार प्रकार के योगी बतलाए हैं(१) कुलयोगी, (२) गोत्रयोगी, (३) प्रवृत्तचक्रयोगी और ( ४ ) निष्पन्न योगी । "
(१) कुलयोगी
जो योगियों के कुल में जन्मे हैं, स्वभावतः योगधर्मी हैं और जो योगमार्ग का अनुशरण करने वाले हैं, वे कुलयोगी कहलाते हैं ।" वे किसी से भी द्वेष नहीं रखते, देव गुरु एवं धर्म उन्हें स्वभाव से ही प्रिय होते हैं तथा ये दयालु, विनम्र, प्रबुद्ध और जितेन्द्री होते हैं ।"
(२) गोत्रयोगी
आर्यक्षेत्र के अन्तर्गत भारतभूमि में जन्म लेने वाले मनुष्य जो भूमिभव्य कहे जाते हैं, उन्हें गोत्रयोगी कहा जाता है |
इसका कारण यह है कि भारतभूमि में योगसाधना के अनुकूल साधन और निमित्त आदि सहज ही उपलब्ध होते रहे हैं परन्तु केवल
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अद्वेणं गच्छंतो समयं सत्तीए इट्ठपुरपहिओ ।
जह तह गुरुविणयासू पयट्ठओ एत्थ जोगित्ति ॥ यो०शा०, गा० ७ कुलादियोगभेदेन चतुर्धां योगिनो सतः ।
अतः परोपकारोऽपि लेशतो न विरुध्यते ॥ यो० दृ० समु०, श्लोक २०८
ये योगिनां कुले जातास्तद्धर्मानुगताश्च ये ।
कुलयोगिन उच्यन्ते गोत्रवन्तोऽपि नापरे ॥ वही, श्लोक २१०
सर्वत्राऽद्व ेषिणश्चैते गुरुदेव द्विजप्रियाः ।
दालवो विनीताश्च बोधवन्तो यतेन्द्रिया: ।। वही, श्लोक २११ दे० जैन योग का आलोचनात्मक मध्ययन, पृ० ७१
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