Book Title: Yogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Aatm Gyanpith
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140 योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन जीवन के उत्थान और कल्याण की कामना करना तथा सत्त्व सभी पापों अथवा दुःखों से मुक्त हों ऐसो भावना रखना।
यजुर्वेद में मित्रता के संकल्प की प्रेरणा देते हुए कहा गया है कि 'सभी प्राणी मुझे मित्र की दृष्टि से देखें। मैं भी सब प्राणियों को मित्र की दृष्टि से देवू । हम सब परस्पर एक दूसरे को मित्र की दृष्टि से देखें' मित्रस्य मा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समक्षिन्ताम् । मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीषे। मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे ।।
ऐसी मैत्री भावना के चिन्तन से साधक के अन्तःकरण की विषमता दूर होती है और समता का आविर्भाव होता है।
जो साधक समस्त विश्व को समभाव से देखता है, उसकी भेदबुद्धि समाप्त हो जाती है, वह किसी का भी अप्रिय या प्रिय नहीं करता है । प्रमोद भावना
अध्यात्मयोग की दूसरी भावना है—प्रमोद । तत्त्वार्थसूत्र की वृत्ति सर्वार्थसिद्धि में प्रमोद शब्द का अर्थ करते हुए लिखा है कि 'मख की प्रसन्नता, अन्तरंग की भक्ति एवं अनुराग को व्यक्त करना' प्रमोद है-- वदनं प्रसादादिभिरभिव्यज्यमानान्तर्भावितरागः प्रमोदः ।
उपाध्यायविनय विजय ने बताया है कि-गुणों के प्रति पक्षपात अथवा गुणों के प्रति अनुराग रखना ही प्रमोदभाव है-भवेत् प्रमोदो गुणपक्षपातः ।।
प्रमोद भावना की व्याख्या करते हुए आचार्य हेमचन्द्र कहते हैं कि 'जिन्होंने हिंसादि समस्त दोषों का त्याग कर दिया है, जो वस्तु के यथार्थ स्वरूप को देखने वाले हैं, उन महापुरुषों के गुणों के प्रति आदर
१. यजुर्वेद, ३६.१८ २. सव्वं जगं तू समयाणुपेही ।
पियमप्पियं कस्स वि नो करेज्जा ॥ सूत्रकृत्तांग, १.१०.६ ३. सर्वार्थसिद्धि, ७.११.३४६ (वृत्ति) ४. शान्त सुधारस, प्रमोद भावना, १३.३
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