Book Title: Yogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Aatm Gyanpith
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योगविन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन
वह अपने कार्यों को इतनी सावधानी से करता है कि उसे अपने धार्मिक अनुष्ठान व्रत, पूजा आदि के द्वारा दूसरों को जरा भी कष्ट नहीं होने पाता। इस प्रकार साधक वैराग्य की तथा संसार की असारता सम्बन्धी योग-कथाओं को सुनने की इच्छा रखते हुए भी महनीय जनों के प्रति समताभाव के साथ उसका सदैव आदर एवं सम्मान करता हैं ।
यदि कहीं पहले से ही उसके मन में योगी, संयमी अथवा साधु आदि के प्रति अनादर के भाव होते हैं तब भी वह ऐसी स्थिति में अनादर और द्वेष के बदले सत्कार और स्नेह भरी सद्भावना का ही व्यवहार करता है। साधक संसार की विविधता तथा मक्ति के सम्बन्ध में चिन्तन मनन करने में असमर्थ होकर भी सर्वज्ञ द्वारा निर्दिष्ट अथवा उपदिष्ट कथनों पर श्रद्धा रखता है।
इस अवस्था में साधक को सम्यग्ज्ञान न होने से उपयोगीअनुपयोगी पदार्थों की पहचान नहीं हो पाती । इसलिए वह अनात्मभाव को आत्मस्वरूप समझ बैठता है। इस प्रकार इस दष्टि में साधक योगलाभ प्राप्त करने की उत्कट आकाँक्षा रखते हुए भी अज्ञान के कारण अनुचित कार्यों में लगा रहता है । तात्पर्य यह है कि सत्कर्म में लगे रहने पर भी साधक में अशुभ प्रवृत्तियां बनी रहती हैं। बलादृष्टि
इस दृष्टि में साधक सुखासनयुक्त होकर काष्ठाग्नि जैसा तेज एवं स्पष्ट दर्शन प्राप्त करता है। उसे तत्त्वज्ञान के प्रति अभिरुचि उत्पन्न होती है तथा उसको योगसाधना में किसी भी प्रकार का उद्वेग नहीं रह जाता। इसमें साधक वैसे ही आनन्दानुभूति करता है जैसे सुन्दर युवक १. कृत्येऽधिकेऽधिकगते जिज्ञासा लालसान्विता ।
तुल्य निजे तु विकले संत्रासो द्वषवर्जितः ।। वही, श्लोक ४६ २. भवत्यस्यामविभिन्नाप्रीतियोग कथासु च ।।
यथाशक्त्युपचारश्च बहुमानश्च योगिषु ॥ ताराद्वात्रिंशिका, श्लोक ६ दुःखरूपो भवः सर्व उच्छेदोऽस्य कुतः कथम् ।
चित्रा सतां प्रवृतिश्च सा शेषा ज्ञायते कथम ॥ योगदृटि समु०, श्लोक ४७ ४. सुखासनसमायुक्तं बलायां दर्शनं दृढं ।
परा च तत्त्वशुश्रूषा न क्षेपो योगगोचरः ॥ वही, श्लोक ४६
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