Book Title: Yogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Aatm Gyanpith
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योगबिन्दु की विषब वस्तु
121 सुन्दरी युवती के साथ नाच-गाना सुनने में दत्तचित्त होकर अतीव आनन्द को अधिगत करता है, वैसे ही योगी भी शास्त्र-श्रवण व देव-गुरु की पूजादि में उत्साह एवं आनन्द की प्राप्ति करता है ।।
पहली दो दृष्टियों की अपेक्षा इस दृष्टि में साधक के मन की स्थिरता सुदृढ़ होती है। कारण यह है कि चारित्र पालन का अभ्यास करते-करते साधक की वृत्तियां एकाग्र हो जाती हैं और तत्त्वचर्चा में भी वह स्थिर हो जाता है । यहाँ तक कि साधक विविध आसनों का सहारा लेकर चारित्र विकास की सभी क्रियाओं को अप्रमत्तभाव से सम्पन्न करता है । इससे उसकी बाह्य पदार्थों के प्रति तृष्णा कम हो जाती है। धार्मिक कार्यों में वह पूर्णतया तल्लीन हो जाता है। उसे तत्त्वचर्चा सुनने को मिले अथवा न मिले किन्तु उसकी भावना निर्मल एवं इतनी अधिक पवित्र हो जाती है कि उसकी इच्छामात्र से ही उसका कर्मक्षय होने लगता है और शुभ परिणामों के कारण समताभाव का विकास होता है। इसी के फल स्वरूप वह अपनी प्रिय वस्तुओं पर भी आग्रह नहीं रखता। साधक को जीवन यापन के लिए जैसा कुछ मिल जाता है वह उससे ही सन्तुष्ट हो जाता है । इस प्रकार इस दृष्टि में साधक की प्रवृत्तियां प्रशान्त हो जाती हैं, तथा सुख देने वाले आसनों से मन स्थिर हो जाता है और समताभाव का उद्रेक हो जाता है जिससे आत्मविशुद्धि बढ़ जाती है।
दीप्रादृष्टि
यह दृष्टि प्राणायाम एवं तत्त्वश्रवण से संयुक्त होती है तथा सूक्ष्म भावबोध से रहित भी होती है। इसमें उत्थान नामक दोष आता है
१. कान्तकान्तासमेतस्य दिव्य गेयश्रुतौ तथा।
यूनो भवति शुश्रुषा तथा स्यां तत्त्वगोचरा ॥ वही, श्लोक ५२ २. असाधुतृष्णात्वरयोरभावत्वात् स्थिरं सुखं चासनमाविरस्ति ।
अध्यात्मतत्त्वालोक, ८६ श्रुताभावेऽपि भावेऽस्याः श भभावप्रवृत्तितः ।
फलं कर्मक्षयाख्यं स्यात् परबोधनिबन्धनम् ॥ योगदृष्टि समु०, श्लोक ५४ ४. परिष्कारगतः प्रायो विधातोऽपि न विद्यते ।
अविघातश्च सावद्यपरिहारान्महोदयः ॥ वही, श्लोक ५६
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