Book Title: Yogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Aatm Gyanpith
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योगबिन्दु की विषय वस्तु
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अस्पष्ट ही रहता है।
मिथ्यात्व की इसी सघनता के कारण इन दृष्टियों के जीवों को अवेद्य-संवेद्यपद कहा गया है। क्योंकि अज्ञानवश जीव अनेक अनचित कार्यों के करने से दुःखा होता है। दूसरे शब्दों में इसे भवाभिनन्दी भी कहा गया है । इस अवस्था में जीव अपरोपकारी, मत्सरी, भयभीत, मायावी, संसार के प्रपंचों में रत और प्रारम्भिक कार्यों में निष्फल होता है।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि ये चार दृष्टि यद्यपि मिथ्यात्व अवस्था की हैं जिसमें साधक यम, नियम आदि तथा अन्य धार्मिक अनुष्ठानों के विधिवत् पालन करने से शान्त, भद्र, विनीत, मुदु तथा चारित्र का विकास करते हए मिथ्यात्व को घटाता है और योग साधना में प्रगतिशील होता है।
स्थिरादृष्टि
__ इस दृष्टि में अप्रतिपाति सम्यग्दर्शन होता है। इस अवस्था को प्राप्त करते ही साधक ऊर्ध्वगामी हो जाता है। इसमें प्रत्याहार की साधना पूर्ण की जाती है। साधक स्व-स्व विषयों के सम्बन्ध से विरत होकर चित्त को स्वरूपाकार करता है। साधक की सभी क्रियाएं निर्भान्त, निर्दोष और सूक्ष्मबोधयुक्त होती है।
इस दृष्टि में साधक को मिथ्यात्व ग्रंथी का भेदन होने से मानसिक स्थिति सन्तुलित रहती है, फलतः उसे संसार के भोग-विलास क्षणभंगर १. नेतद्वतोऽयं तत्तत्त्वे कदाचिदुपजायते ॥ योगदृष्टिसमु०, श्लोक ६८ २. दे० अध्यात्मतत्त्वालोक, श्लोक १०६ ३. क्ष द्रोलाभर तिर्दीनो मत्सरी भयवान् शठः ।
अज्ञो भवाभिनन्दीस्यान्निष्फलारम्मसंगतः ॥ योगदृष्टिसमु०, श्ली ७६ ४. शान्तो विनीतश्च मदुप्रकृत्या भद्रस्तथा योग्यचारित्रशाली।
मिथ्यादृगप्युच्यत एव सूत्रे विमुक्तिपात्रंस्तुतधार्मिकत्वः ॥
अध्यात्मतत्त्वालोक १२० ५. स्थिरायां दर्शनं नित्यं प्रत्याहारवदेव च ।
कृत्यमभ्रान्तमनर्थ सूक्ष्मबोधसमन्वितम् ॥ योगदृष्टिसमु०, श्लोक १५४
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