Book Title: Yogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Aatm Gyanpith
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भारतीय वाङमय में योगसाधना और योगबिन्दु
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साधु गृहस्थों के आचारों का निरूपण किया गया है जबकि चतुर्थ अध्याय में कषायों पर विजय पाने तथा समतावृत्ति के स्वरूप का वर्णन है । पाँचवें में प्राणायाम को विषय बनाया गया है जो मोक्ष की सिद्धि में अनावश्यक है। छठे में परकायाप्रवेश, प्रत्याहार और धारणा के स्वरूप तथा उससे होने वाले परिणामों का वर्णन है। ७ से १० तक के अध्यायों में ध्यान की विस्तृत चर्चा मिलती है। ११वें और १२रों में क्रमशः शुक्लध्यान तथा स्वानुभव के आधार पर योग की चर्चा की गयी है।
(ग) जैनदर्शन में योग साधना और योगबिन्दु जैन शब्द का अभिप्राय
जैनदर्शन पद संयुक्त है। इसमें जैन और दर्शन ये दो पद मिले हुए हैं। जिन शब्द से जैन पद बना है। जीतने के अर्थ में भवादि गण की परस्मैपदी 'जि' धातु में नक् प्रत्यय लगाकर (जि + नक्) जिन शब्द बना, जिसका अर्थ है--जीतना, विजय करना। इसी 'जिन' शब्द में 'अण' प्रत्यय लगने पर 'जैन' शब्द बनता, जिसका अर्थ है-जैन सिद्धान्तों का अनुयायी, जैन मत को मानने वाला अर्थात 'जिन' के उपासक को जैन कहते हैं और 'जिन' उन्हें कहते हैं जिन्होंने क्रोध आदि कषाय चतुष्टय को तथा राग एवं द्वेष इन छः शत्रुओं को जीत लिया है। इन क्रोध आदि को अपने अन्दर से जिन्होंने निकाल फेंका है ऐसे ये 'जिन' ही अर्हन्त (अरहन्त-अरिहन्त) तथा वीतरागी भी माने जाते हैं।
अरहन्त<आर्य
इन्हें आर्य भी कहा जाता है । बौद्ध भी अर्हत् को आर्य बतलाने हैं । जिन्होंने राग-द्वेष एवं मोह का निश्शेषतः विप्रणाश कर दिया होता
१. दे०–आप्टे, संस्कृत हिन्दी कोश, पृ० ४०५
२. वही, पृ० ४०८ ____३, जयति रागद्वेषादिशत्रुनिति जिनः । षड्दर्शनसमुच्चय, पृ० ३
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