Book Title: Yogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Aatm Gyanpith
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योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैक योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन
जागने पर इस प्रकार का ज्ञान हो कि यह विषय असत्य है और इसका अनुभव मुझे थोड़े समय के लिए ही हुआ था। यही स्वप्न कहा जाता है।
स्वप्नजाग्रत
इस अवस्था में अधिक समय तक जाग्रत अवस्था के स्थूल विषयों का, स्थूल देह का अनुभव नहीं होता और स्वप्न ही जाग्रत के समान होकर महाजाग्रत-सा प्रतीत होता है ।
(७) सुषुप्ति
पूर्वोक्त अवस्थाओं से रहित, भविष्य में दुःख देने वाली वासनाओं से युक्त जीव की अचेतन स्थिति का नाम सुषुप्ति है ।।
इनमें से प्रथम दो अवस्थाओं अथवा भूमिकाओं में राग-द्वेषादि कषाय का अल्प अंश होने के कारण वे वनस्पति एवं पशु-पक्षियों में पायी जाती हैं लेकिन आगे की ओर सभी भूमिकाओं में कषायों की अधिकता बढ़ती जाती है। इसी कारण भूमिकाएं सामान्य मानव में ही पायी जाती है कारण है कि क्रोध, मान, माया आदि की तीव्रता मनष्य में ही होती है । इस प्रकार प्रथम भूमिका में जितना अज्ञानता होती है, उसके बाद वाली अवस्थाओं में उतनी अज्ञानता नहीं रहती फिर भी ये सातभूमिकाएं अज्ञानानस्था की ही कही जाती हैं चूंकि भले-बुरे का ज्ञान उनमें नहीं हो पाता।
(२) विकसित अवस्था
इस अवस्था में पहले की अपेक्षा विवेकशक्ति की उपस्थिति के कारण साधक का मन आत्मा के वास्तविक रूप को पहचानने के लिए उत्सुक रहता है, जिससे बुरे विचारों को त्याग कर आत्मा के समीप ले जाने वाले प्रशस्त विचारों को मनोयोगपूर्वक ग्रहण कर सके ।
इस सन्दर्भ में आत्मा को बोध देने वाली ज्ञान की सात भूमिकाओं का उल्लेख भी मिलता है, जो क्रमश: स्थूल आलम्बन से हटाकर साधक १. योगवासिष्ठ, ३११७, २४
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