Book Title: Yogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Aatm Gyanpith
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योगबिन्दु की विषय वस्तु
विकास की प्रक्रिया में निखार आता है । ये स्थितियां निम्नलिखित हैंसकृदागामी
(१) अन्घ पृथक् जन
(४)
(५) अनागामो और
(२) कल्याण पृथक् जन (३) स्रोत - आपन्न
(६)
अर्हत्'
इनको पार करता हुआ साधक अपने चारित्रबल से संयम, करुणा एवं वैराग्य को प्राप्त करता है । इन स्थितियों अथवा अवस्थाओं को और अधिक स्पष्ट करते हुए मिलिन्दप्रश्न में चित्त की सात अवस्थाओं का वर्णन इस प्रकार किया गया है
(१) संक्लेशचित्त
यह स्थिति अज्ञान अथवा मूढ़ता की है, क्योंकि इस अवस्था में योगी का चित्त राग-द्वेष, मोह एवं क्लेश से संयुक्त होता हैं तथा वह शील एवं प्रज्ञा की भावना परक चिन्तन भी नाम मात्र के लिए नहीं करता ।
(२) स्रोत- आपन्नचित्त
यह भी अविकास की ही दूसरी अवस्था है । इस स्थिति में साधक बुद्ध कथिउमार्ग को भलिभांनि जानकर शास्त्र को अच्छी तरह मनन और चिन्तन करके भी चित्त के तीन भ्रममूलक संयोजनों को ही नष्ट कर पाता है, सम्पूर्ण संयोजनों को नहीं ।
(३) सकृदागामीचित्त
111
इस अवस्था में साधक शेष पांच संयोजनों को समाप्त कर देता है और उसका चित्त कुछ हल्का हो जाता है ।
(४) अनगामीचित्त
१.
२.
मज्झिमनि० १.१
मिलिन्द० ४.१.३
ये दश संयोजना बन्धन हैं -- ( १ ) सक्कायदिट्ठी (२) विचिकिच्छा, (५) पटिघ, (६) रूपराग
(३) सीलब्बत परामास, (४) कामराग
(७) अरूपराग, (८) मान, (2) कौकृत्य एवं (१०) अविद्या | विशुद्धिमा ( हि०) भाग - २, परिच्छेद २२' पृ० २७१
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