Book Title: Yogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Aatm Gyanpith
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योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना को समीक्षात्मक अध्ययन
कई बार इन अनन्त धर्मों में परस्पर विरोध-सा भी प्रतीत होता है, जैसे एक ही व्यक्ति में पिता, पुत्र, पति और भाई आदि अनेक परस्पर विरोधी गुण होते हैं । सामान्यतः यहां विरोध दिखाई पड़ता है क्योंकि जो पिता है वह पुत्र कैसे हो सकता है अथवा जो पति हैं वह भाई कैसे हो सकता है ? इस विरोध का समाधान जैनदर्शन करता है। वह कहता है कि
... एक व्यक्ति अपने पिता की अपेक्षा से पुत्र और अपने पुत्र की अपेक्षा से पिता है । पत्नी की अपेक्षा से पति और बहिन की अपेक्षा से भाई है। यह सापेक्षवाद ही जैनदर्शन है और यही जैनदर्शन का अनेकान्तवाद सिद्धान्त है, जो जैनदर्शन की आधारभूत शिला है। त्रिगुणात्मक वस्तु
विश्व के प्रत्येक पदार्थ में उत्पाद, व्यय (विनाश) और ध्रौव्य (स्थिरत्व) ये तीनों ही गुण पाए जाते हैं और यही जैनदर्शन की दृष्टि से वस्तु का स्वरूप है। हर वस्तु में अस्तित्व और नास्तित्व साथ-साथ उपलब्ध होते हैं । जो वस्तु को सद्रप मानते हैं , उन्हें इस कथन में सन्देह होने लगता है । इन सन्देहशील व्यक्तियों को सन्देह से ऊपर उठ कर तत्त्वज्ञान के धरातल पर पहुंचने के लिए जैनदर्शन के अनेकान्तवाद को सम्यक्तया समझना पड़ेगा।
अनेकान्तवाद
यह अनेकान्तवाद क्या है ? इसका उत्तर देते हुए जैन दार्शनिकों का कहना है कि वस्तु में जो विभिन्न परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले धर्म, गुण और पर्याय आदि हैं उनको स्पष्ट करना अनेकान्त है।' यही जब सिद्धान्त का रूप ले लेता है तब उसे अनेकान्तवाद कहते हैं। वस्तु स्वभाव का नाम ही अनेकान्त है। इस वस्तु स्वरूप का विवेचन करने
१. उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् । तत्तवार्थसूत्र ५/३० - सद्रव्यलक्षणम् । वही, ५/२६
___ गुणपर्ययवद् द्रव्यम् । वही, ५/३८ .२. दे० न्याय दीपिका, ३.७६
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