Book Title: Yogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Aatm Gyanpith
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योगबिन्दु के रचयिता: आचार्य हरिभद्रसूरि
अपने प्रसिद्ध दार्शनिक ग्रंथ षड्दर्शनसमुच्चय में चार्वाक दर्शन को समान स्थान देकर अपना समत्व गुण स्थापित किया है। उनका मानना है कि न्याय और वैशेषिक दर्शन भिन्न नहीं है। अतः की गई प्रतिज्ञा के अनुरूप षड्दर्शनों का पूर्ति करने के लिए वे चार्वाक को भी एक दर्शन मान कर उसे बराबरी का स्थान देते हैं।'
आस्तिक एवं नास्तिक पद लोक तथा शास्त्र में विख्यात रहा है। यद्यपि पाणिनी ने परलोक आत्मा पूनर्जन्म जैसे अदष्ट तत्व न मानने वाले को काशिकावृत्ति में नास्तिक और मानने वाले को आस्तिक बतलाया है. जिन्होंने कालान्तर में साम्प्रदायिकता को धारण कर लिया। एक ने वेद को मुख्य मान कर वेद को प्रमाण मानने वाले को आस्तिक और प्रमाण न मानने वाले को नास्तिक की मान्यता दे दा, जबकि दूसरा इसका विरोधी था। वह परलोक आत्मा, पुनर्जन्म तो मानता था किन्तु वेदविहित क्रियाकाण्ड में विश्वास नहीं रखता था। आगे चल कर इस चर्चा ने ऐसा भयंकर रूप धारण कर लिया कि वेदनिन्दक का बहिष्कार करने की घोषणा मनुस्मृतिकार ने कर दी।
दूसरी मान्यता वालों ने कहा कि जो हमारे शास्त्रों को न माने वह मिथ्यादृष्टि है । इस प्रकार आस्तिक नास्तिक पद का अर्थ तात्त्विक मान्यता से हटकर ग्रंथ और पुरस्कर्ताओं की मान्यता में रूपान्तरित हो गया फिर भो हरिभद्रसूरि इस साम्प्रदायिकवृत्ति के वशीभूत नहीं हुए, और वेद माने या न माने, जैनशास्त्र माने या न माने, परन्तु यदि वह
१. नैयायिक मतादन्ये भेदं वैशेषिकैः सह ।
न मन्यन्ते मते तेषां पंचवास्तिकवादिनः ।। षडदर्शनसंख्या तु न पूर्यते तन्मते किल । लोकायतमतक्षेपे कथ्यते तेन तन्मतम् ॥ षड्दर्शनसमु०, श्लोक ७७-७८ अस्ति-नास्ति-दिष्टं मतिः । पाणिनी ४. ४. ६० न च मतिसत्तामात्र प्रत्यय इष्यते । कस्तहि ! परलोकोऽस्तीति यस्य मतिरस्ति स आस्तिकः । तद्विपरीतो नास्तिकः । काशिका
३.
दे. मनुस्मति, २.११
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