Book Title: Yogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Aatm Gyanpith
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योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैक योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन
आदि इसके प्रमुख विषय हैं।
आचार्यश्री ने विवृत्ति के माध्यम से प्रत्येक पद की व्याख्या करते हुए समस्त दर्शनों की आचारविचार पद्धतियों का स्वरूप प्रस्तुत कर जैनदर्शनानुसार स्वीकृत मान्यताओं को जीवन में अपनाने की और उन्हें उतारने की प्रबल प्रेरणा दी है।
मुनिचन्द्रसूरि ने ललितविस्तरा पर २१५५ श्लोक प्रमाण पञ्जिका नामक टीका लिखो है : साथ ही श्रीमानतुंगविजय ने इसका हिन्दी अनुवाद भी किया हैं जो कि अब सटीक पञ्जिका के साथ १६६३ में प्रकाशित भी किया गया है ।। (ग) कथा परक साहित्य
कथापरक रचनाओं में आचार्यश्री की दो ही रचनाएं मिलती हैं। वे हैं—(१) समराइच्चकहा और (२) धूर्ताख्यान (२५) समराइच्चकहा
आचार्यश्री हरिभद्रसूरि द्वारा प्राकृत भाषा में निबद्ध समराइच्चकहा>समरादित्यकथा सूरि की ही नहीं, और न केवल जैन साहित्य की ही अपितु सम्पूर्ण भारतीय कथा साहित्य की सर्वोत्तम कृति है। इसके लिखने में आचार्य प्रवर का चाहे कोई भी मूल कारण रहा हो किन्तु निस्सन्देह जैसा कि विद्वानों का अभिमत है कि यह ग्रंथ सूरि ने प्रतिशोध की भावना के प्रतिफल स्वरूप लिखा था।
यह रचना आचार्यश्री हरिभद्रसूरि की कृतियों में सर्वाधिक प्राचीन एवं सर्वप्रथम ग्रंथ विशेष है। इसमें महाराजा समारादित्य के पूर्व के नौ जन्मों का वर्णन कथा के रूप में प्रस्तुत किया गया है। सम्पूर्ण ग्रंथ नौ भवों में विभक्त है। इसके पढ़ते ही पाठकों को बाण की कादम्बरी सहज ही स्मरण हो जाती है।
. इसमें जन्म कथाओं के आधार से मानव के संस्कार सात्त्विक गुण, परस्पर में एक दूसरे के प्रति रागद्वेषमयी भावना का स्फुरण, बदले की प्रबल भावना, बध-बन्धन आदि, कुगुरुपूजन एवं उपासना, क्षेत्रादि के १. चैत्यवन्दनसूत्रवृत्ति पञ्जिका टीका (चैत्यवन्दनसूत्रवृत्ति)
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