Book Title: Yogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Aatm Gyanpith
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योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन
२० गाथाओं में धर्म का स्वरूप है। जीव विषय चार्वाक दर्शन का खण्डन कर इसमें जैन दृष्टि से जोव के स्वरूप का सम्यक विवेचन किया गया है। छः निक्षेपों का वर्णन, ज्ञान के भेद, सम्यक्त्व के अष्ट-अंग विवेचन, पंच महाव्रत, सर्वज्ञोपलब्धि और मुक्ति में सुख इत्यादि इसके प्रतिपाद्य विषय हैं। इसके अतिरिक्त इस विशिष्ट ग्रंथ में प्रसंगवश अनेकान्तदृष्टि से, कर्तृत्ववाद, नित्यानित्यवाद, क्षणिकवाद, अज्ञानवाद, सामान्य एवं समवाय तथा बाह्यार्थवाद का खण्डन भी किया गया है।
___इसकी एक विशेषता यह भी है कि इसमें अनेक लेखकों के नाम दिए गए हैं। इसी कारण यह कृति महत्वपूर्ण होते हुए भी इसका लेखक अन्य कोई अज्ञात कवि ही माना जाता है। जबकि डा. शास्त्री जी इसे हरिभद्रसूरि की ही रचना मानते हैं। (७) लोकतत्वनिर्णय
प्रस्तुत कृति पद्यात्मक है। इसकी भाषा संस्कृत है। इसमें कुल १४४ श्लोक हैं। इसका अपर नाम नृतत्वनिर्णय भी मिलता है। सन् १९०५ में इसका सर्वप्रथम सम्पादन एवं प्रकाशन किया गया था। इस पर गुजराती एवं इटालियन अनुवाद भी मिलता है। षड्दर्शन समुच्चय की टीका तर्क रहस्य' में इसके दो श्लोक उद्धृत मिलते हैं। इसमें यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि उपर्युक्त कृति १५वीं शदी में विद्वानों में प्रचुर प्रशंसा की पात्र बन चुकी थी।
१९२१ में प्रकाशित 'लोकतत्व निर्णय' के संस्करण को तीन भागों में बांटा गया है। इसके प्रारम्भ में जैनेतर देवों के नामों के साथ सृष्टि के स्वरूप एवं उसकी उत्पत्ति पर प्राप्त विविध मतमतान्तर पर चर्चा की गई है। अन्य भागों में आत्मा एवं कर्म, नियतिवाद एवं स्वभाववाद पर भी क्रमशः जैन एवं वैदिक धर्मानुसार खण्डन मण्डन के साथ विस्तार से वर्णन किया गया है। १. दे० हरिभद्रसूरि, पृ० ६६ २. दे० हरि० प्रा० क० सा० आ० परि०, पृ० ५३ ।। ३. दे० हरिभद्र सूरि, पृ० ११३ एवं हरि० प्रा० का० सा० आ० आ० परि०,
पृ० ५६ ४. दे० षड्दर्शनसमुच्चय, पृ० ११ पर उद्धृत श्लोक १-३२, ३८
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