Book Title: Yogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Aatm Gyanpith
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योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जन योग साधना को समीक्षात्मक अध्ययन
से पार हो जाता है। अर्थात् मोक्ष पद प्राप्त करता है। मोक्षपद को प्राप्त करने के लिए योग को उत्तम साधन माना है तथा ज्ञान-दर्शन और चारित्ररूप रत्नत्रय ही योग है।
यह योग शास्त्रों का उपनिषद् है, मोक्ष प्रदाता है तथा समस्त विघ्न-बाधाओं को शमन करने वाला है। यह इसीलिए कल्याणकारी है। यह इच्छित वस्तुओं की प्राप्ति कराने वाला कल्पतरु एवं चिन्तामणि है। सब धर्मों में प्रधान यह योगसिद्धि स्वयं के अनुग्रह अथवा अध्यवसाय से मिलती है।
साधना में मन का महत्व
- मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः यह कथन बड़ा सार्थक है क्योंकि मन ही मानव के पास एक ऐसी वस्तू है जिसके बल पर वह ही कुछ से कुछ अधिक बन जाता है। मन के म्लान होने पर ही मनुष्य की हार और मन की प्रसन्नता में उसकी जीत निहित होती है। किसी हिन्दी कवि ने भी कहा है कि 'मन के हारे हार है मन के जीते जीत ।' अत: मन ही मानव है। चित्त, विज्ञान और हृदय ये सभी मन के पर्यायवाची हैं । १. वाहणं वहमाणस्स कंतारं अइवत्तई।
जोए वहमाणस्स संसारो अइवत्तई ॥ उत्तरा० सू०, २७.२ २. ज्ञानदर्शनचारित्ररूप रत्नत्रयात्मकः ।
योगो मुक्तिपद प्राप्ता उपायः प्रकीर्तितः ॥ योगप्रदीप, १/१२३ शास्त्रस्योपनिषद्योगो योगो मोक्षस्य वर्तनी। अपायशमनौ योगो, योगकल्याणकारकम् ॥ योगमाहात्म्य, द्वात्रिंशिका, गा० १ योगः कल्मतरु श्रेष्ठो योगश्चिन्तामणि परः ।
योगप्रधानं धर्माणां, योग: सिद्धेः स्वयं ग्रहः ॥ योगबिन्दुः, श्लोक ३७ ५. दे० मैत्रायणी-आरण्यक, ६.३४-६ ६. मनो वै ब्रह्म । गोपथ ब्राह्मण, २.५.४ ७. मानसेन हि दुःखेन शरीरमुपतप्यते । महाभारत, वनपर्व, २.१६
मनोऽस्य दैवं चक्षुः । छान्दोग्य-उपनिषद्, ८.१२.८ ६. मनो वै दीदाय (मनः सर्वार्थप्रकाशकत्वाद् दीदाय दीप्तियुक्तं भवति)
मनसो हि न किंचन पूर्वमस्ति । ऐतरेय ब्राह्मण, ३.२
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