Book Title: Yogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Aatm Gyanpith
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योगविन्दु के रचयिता: आचार्य हरिभद्रसूरि
किन्तु मुनि जयसुन्दरविजय ने इसका खण्डन करते हुए कहा है कि-उपमितिभवप्रपञ्चकथा के रचयिता ने 'उपमिति-' की समाप्ति की जो सूचना दी है। उससे उसका समाप्ति समय वि०सं० की ११वीं शताब्दी सिद्ध होता है।
यहां हमें मुनि जय सुन्दर विजय के कथन पर भी विशेष ध्यान देना होगा जैसे सिौष को आचार्य हरिभद्रसूरि की ललितविस्तरा से बोध प्राप्त हआ था। इस वाक्य से सिद्धर्षि अपना गुरु हरिभद्रसूरि को मानते हैं, जो स्वाभाविक-सा लगता है कारण कि प्रकट में भी एक व्यक्ति के अनेक गुरु आचार्य पाए जाते हैं। गुरु से प्रेरणा मिलना ही पर्याप्त है, जो किसी से भी प्राप्त हो सकती है। मुनि जयसुन्दर कहते हैं कि 'सिद्धर्षि' को आचार्य हरिभद्रसूरि की कृति 'ललितविस्तरा' से बोध प्राप्त हुआ था। इस कारण हरिभद्रसूरि, सिद्धर्षि के साक्षात् गुरु न होकर शास्त्रगुरु थे। अतः आचार्य हरिभद्रसूरि का समय छठी शताब्दी में ही मानना युक्तियुक्त है । इसके प्रमाण में मुनि जयसुन्दरविजय कहते हैं कि हरिभद्रसूरि ने 'लघुक्षेत्रसमासवृत्ति' नामक अपनी रचना के अन्त में अपने समय का स्पष्ट उल्लेख किया है। वहाँ पर जो गाथा है उसमें सम्वत् तिथि, मास, वार और नक्षत्र आदि का स्पष्ट निर्देश किया गया है।
आचार्य हरिभद्रसूरि के छठी शताब्दी में आविर्भूत होने का एक और प्रमाण है, वह है-श्री मेरुतुंगसूरि द्वारा रचित 'प्रबन्ध चिन्तामणि' नामक ग्रंथ, जिसमें मेरुतंगसरि ने एक गाथा उद्धत की है। यह गाथा अन्य ग्रंथों--विचार श्रेणी आदि में भी उपलब्ध होती है। १. संवत्सरशतनवके द्विषष्टिस हिते तिलङि घते चास्याः ।
ज्येष्ठे सित पञ्चम्यां पुनर्वसो गुरुदिने समाप्तिरभूत् ॥ वही लघुक्षेत्र समासस्य वृत्तिरेषा समासतः । रचिताइ बुधबोधार्थं श्रीहरिभद्रसूरिभि : ॥ १॥ पञ्चाशितिकवर्षे विकमतो ब्रजति शुक्लपञ्चम्याम् ।
शुक्रस्य शुक्रवारे पुष्ये शस्ये च नक्षत्रे ॥ २ ॥ लघुक्षेत्रसमासवृत्ति ३. पंचसए पणसीए विक्कम कालाउ झति अत्थ मिओ।
हरिभद्रसूरिसरो भवियाण दिसऊ कल्लाणं ॥ शा०वा समु०, भूमिका, पृ० ८ पर उद्ध त फुट नोट
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