Book Title: Yogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Aatm Gyanpith
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भारतीय वाङ मय में योगसाधना और योगबिन्दु वाले सिद्धान्त को अनेकान्तवाद नाम दिया गया है ।।
इसे दूसरे शब्दों में किसी पदार्थ के स्वरूप को जानने का उपाय भी कहा जा सकता है। दार्शनिकों की भाषा में वस्तु को विभिन्न पहलओं से देखने, जानने का यह विशिष्ट जैन दष्टिकोण है। दार्शनिक क्षेत्र में इसे जैन विचार या मत के नाम से भी जाना जाता है। यह विचार जब आचार का रूप लेता है अथवा जब हम विचार को जीवन में क्रियात्मक रूप देते हैं तब वह साधना का विषय बन जाता है। यह साधना जब तन्मयतापूर्वक की जाती है तब ही योग साधना कहलाती है क्योंकि साध्य के प्रति इस तन्मयता को ही पातञ्जलयोग सूत्र में योगश्चित्तवति निरोधः कहा है। अर्थात् यह हमारी शक्ति जो बाहर बिखरी हुई है वहां से हटकर किसी एक ध्येय पर स्थिर होती है तो वही योग कहलाता है।
इसी को जैनदर्शन में संवर से अभिव्यक्त किया गया है। जैसे योगदर्शन में चित्तवृत्तियों को बाहर से रोककर स्वरूपप्रदर्शन में प्रवृत होने का उल्लेख है। वैसे ही जैनदर्शन में इसके लिए निर्जरा शब्द का प्रयोग किया गया है, जो कि आत्मा में लगे हुए कर्ममल को दूर करने का साधन है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि जैनदर्शन में योग के लिए प्रमुख रूप से तीन शब्दों का प्रयोग हुआ है-आश्रव, संवर और निर्जरा। जैन साधना में योग
जैन आगमों में अनेक स्थानों पर योग का महत्त्व प्रतिपादन किया गया है। उत्तराध्ययनसूत्र में योग को चर्चा करते हुए कहा गया हैं कि जैसे बैल वाहन (गाड़ी) में जुता हुआ सही दिशा में चलकर विकट जंगल से पार हो जाता है वैसे ही साधक योग का आश्रय लेकर भवसागर १. एकवस्तुनि वस्तुत्वनिष्पादकपरस्परविरुद्धशक्तिद्वयप्रकाशम् ।
अनेकान्तः । समयसार-आत्मख्याति २. दे० पा० यो०, १.२ ३. आश्र बनिरोधः संवरः । तत्त्वार्थसूत्र, ६.१ ४. तदाद्रष्ट स्वरूपे अवस्थानम् । पा० यो०, १.३ ५. बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्याम् । तत्त्वार्थसूत्र १०.२
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