Book Title: Yogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Aatm Gyanpith
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40 योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन
लिष्ट मन की भूमिका यातायात मन के बाद प्रारम्भ होती है। इस मन के निरोध के अभ्यास से चित्तवृत्तियां शान्त हो जाती हैं तथा आन्तरिक शान्ति का अनुभव होने लगता है। सुलीन मन में आनन्द की अनभूति के कारण चित्त एकाग्र होकर आत्मलीन हो जाता है। यही कारण है कि मन के संयम से साधक को परमानन्द की प्राप्ति होती है।' इसीलिए कहा गया है कि जिसने मन को वश में कर लिया है उसके लिए संसार में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है जो वश में न की जा सके। इस प्रकार मन की विजय, योग की सफलता की कुंजी है।
साधना में गुरु का महत्त्व
किसी भी कार्य की सफलता के लिए योग्य गुरु के मार्ग दर्शन की अत्यन्त आवश्यकता होती है और किर योग साधना के साफल्य के लिए तो अनुभवी गरु की प्राप्ति का तो कहना ही क्या है ? क्योंकि बिना सद्गुरु के साधक के जीवन में विषयों तथा कषायों की चञ्चलता में वद्धि होती रहती है तथा शास्त्राभ्यास एवं शद्ध भावनाओं का भी हास होता है । अतः गुरु द्वारा साधक शास्त्र-वचनों का मर्म तथा तत्त्वज्ञान की प्राप्ति करता है, जिससे उसके आध्यात्मिक ज्ञान में वृद्धि होती हैं और आत्मविकास होता है। कहा भी है कि तत्त्वज्ञान अर्थात् ज्ञान की लब्धि दो प्रकार से होती हैं (१) पूर्व संस्कार से तथा (२) गुरु की उपासना से।
१, शिलष्टं स्थिरसानन्दं सुलीनमति निश्चलं परमानन्दम् ।
तन्त्रमात्रकविषयग्रहमुभयमपि बुधस्तदाभ्याम् ।। वही, १२.४ २. ध्यानं मनः समायुक्तं मनस्तत्र चलाचलम् ।
वश्तं येन कृशन तस्य भवेद्वश्यं जगत् त्रयम् ।। योगप्रदीप, ७६ तावद् गुरुवचः शास्त्रं तावत्तावच्चभावनाः । कणायविषयेयविद् न मनस्तरली भजेत् ॥ योगसार, श्लोक ११६ तत्र प्रथमतत्त्वज्ञानः संवादको गुरुर्भवति । दर्शयिता त्वपरस्मिन् गुरुमेव भजेत् तस्मात् ॥ योगशास्त्र, १२.१५ तथा दे० मुनिसमदर्शी द्वारा सम्मादित-योगशास्त्र १२वें अ०, श्लोक १५ की व्याख्या
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