Book Title: Yogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Aatm Gyanpith
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(ग) योग की भूमियां (136-178)
(1) अध्यात्म योग-चार विशेषण-औचित्य, वृत्तसमवेतत्व, आगमानुसारित्व, मैत्री आदि, मैत्रीभावना, प्रमोदभावना, कारुण्य, माध्यस्थ भावना, (2) भावना-वैराग्यभावना, भावना और अनुप्रेक्षा, द्वादश अनुप्रेक्षाएं-अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, लोक, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, धर्म एवं बोधि दुर्लभ, (3) ध्यान,
(4) समता, (5) वृत्तिसंक्षय, वृत्तियो के भेद ... और कारण, वृत्तिसंक्षय के हेतु, वृत्तिसंक्षय का
परिणाम
परिच्छेद-चतुर्थ : योग : ध्यान और उसके भेद
179-21 (क) जैन ध्यान योग : ध्यान के तत्त्व (179--228)
(1) ध्यान का लक्षण एवं भेद, ध्यान के तत्त्व, (1) ध्येय, ध्याता, ध्यान, (2) ध्यान साधना के आवश्यक निर्देश, ध्यान के अंग, (3) ध्यान के हेतु, (4) ध्यान भेद -प्रभेद --(1) आर्तध्यान - (1) अप्रियवस्तुसंथोग आर्तध्यान, (2) प्रियवस्तु वियोग अथवा इष्टवियोग आर्तध्यान, (3) प्रतिकूलवेदना आर्तध्यान, (4) निदानानुबन्धी अथवा भोगात ध्यान आर्तध्यान के लक्षण, आर्तध्यान की त्रिविध लेश्याएं (2) रौद्रध्यान-(1) हिंसानुबंधी रौद्रध्यान, (2) मृषानुबन्धीरौद्रध्यान, (3) चार्थानन्दरौद्रध्यान, (4) विषयसंरक्षणानुबन्धीरोद्रध्यान, रौद्रध्यान के लक्षण, रौद्रध्यानी की लेश्याएं, (3) धर्मध्यान-धर्म का स्वरूप', धर्मध्यान का अधिकारी, धर्मध्यान की सिद्धि हेतु आवश्यकनिर्देश, धर्मध्यान की विधि, धर्मध्यान के भेद-प्रभेद-(1) आज्ञा-विचय धर्मध्यान, (2) अपायविचय धर्मध्यान, (3) विपाकविचय धर्मध्यान, (4) संस्थान विचय धर्मध्यान-आलम्बन (1) पिण्डस्थ-(1)पाथिवी,(2)आग्नेयी (3) वायवी (4) वारुणी और (5) तात्वती, (2) पदस्थ-प्रणव
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