Book Title: Yogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Aatm Gyanpith
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योगविन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन
होता है, उस समय मनुष्य को पूर्ण सन्तोष मिलता है और परम आनन्द की अनुभूति में वह लीन हो जाता है । इस अवस्था में स्थित होकर वह विचलित नहीं होता । यही योगमुक्ति की पहचान है, जहां पहुंचकर सत्त्व सुख-दुःख, हानि, लाभ, सिद्धि-असिद्धि में समान रहता है । इसी समभाव का नाम योग है । "
इस प्रकार गीता में प्रत्येक योग का वास्तविक अथवा स्वरूपभूत लक्षण वर्णित है और हर हालत में आत्म-संयम, कामना, त्याग, प्राणिमात्र से प्रेम और निंदा-स्तुति में समभाव आदि गुणों की अपेक्षा रखो गया है फिर भो कर्म-योग, राजयोग, भक्तियोग, एवं ज्ञानयोग में क्रमशः कर्म, ध्यान, भक्ति एवं ज्ञान पर विशेष जोर दिया गया है । *
संक्षेप में गीता एक मानव जीवन का विधान है । यह बुद्धि के द्वारा सत्य का अनुसंधान है और सत्य को मनुष्य की आत्मा के अन्दर क्रियात्मक शक्ति देने का प्रयत्न भी है । इसलिए प्रत्येक अध्याय के उपसंहारपरक वाक्य से यह स्पष्ट हो जाता है, जो एक अनिश्चितकाल से प्राप्त होता आ रहा, वह यह कि यह एक योगशास्त्र है अथवा ब्रह्म सम्बन्धी दर्शनशास्त्र का धार्मिक अनुशासन शास्त्र मात्र ।
४ - स्मृतियों में
सम्पूर्ण स्मृतियों को आचार-विचार एवं नीतियों की अमूल्य निधि कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी क्योंकि इनमें वैदिक परम्परा विहित समस्त आश्रमों का विस्तृत वर्णन किया गया है । याज्ञवल्क्य स्मृति, मनुस्मृति आदि में साधकों के अनेक कर्त्तव्यों और गृहस्थों के सत्कर्मों की चर्चा मिलती है ।"
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गीता ६. २०-२१
वही २.४८, तथा ३.१६
दे ० जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन, पृ० १८
( राधा० ) भारतीय दर्शन, भाग-१, पृ० ४६१
चत्वाराः आश्रमाः ब्रह्मचारी - गृहस्थ- वानप्रस्थ परिब्राजकाः । वाशिष्ठस्मृति,
पृ० २०६
संध्या स्नानं जपो होमस्वाध्यायदेवतार्च्य नम्
पाराशरस्मृति, ३६
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" षट् कर्माणि दिने दिने ।
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