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विश्वनत्त्वप्रकाशः
उमास्वाति तथा देवर्धि के समय तक जैन दर्शन में परमतखण्डन की अपेक्षा स्वमतप्रतिपादन की प्रमुखता रही। ईस्वी सन की प्रारम्भिक सदियों में नागार्जुन आदि बौद्ध आचार्यों ने तर्क के प्रयोग को बढावा दिया तथा इस की प्रतिक्रिया के रूप में नैयायिक, वैशेषिक, सांख्य तथा मीमांसादि दर्शनों में तर्कबल से स्वमतसमर्थन की प्रवृत्ति प्रबल हुई । इन दर्शनों के सूत्रग्रन्थों का जो संकलन इस युग में हुआ उस से यह तथ्य स्पष्ट होता है । इस परस्पर विरोधी तर्कचर्चा में जैन दर्शन की दृष्टि से ग्रन्थरचना अपेक्षाकृत बाद में- पांचवी सदी से प्रारम्भ हुई । यह कुछ स्वाभाविक भी था । क्यों कि जैन दर्शन के मूलभूत सिद्धान्त स्याद्वाद का कार्य ही परस्पर विरोधी नयों में समन्वय स्थापित करना है। जैन तार्किकों के अग्रणी समन्तभद्र तथा सिद्धसेन ने इसी दृष्टि से अपने ग्रन्थ लिखे तथा भारतीय तार्किक साहित्य में जैन शाखा की प्रतिष्ठापना की।
१०. समन्तभद्र- जैन साहित्य में विशुद्ध रूप से तार्किक ग्रन्थों की रचना स्वामी समन्तभद्र ने शुरू की। स्यावाद तथा सप्तभंगी के प्रतिष्ठापक के रूप में उन का स्थान अद्वितीय है।
समन्तभद्र का जन्म क्षत्रिय कुल में हुआ था । आप्तमीमांसा की एक प्रति की पुष्पिका के अनुसार वे फणिमण्डल के अलंकारभूत उरगपुर के राजकुमार थे । जिनस्तुतिशतक के अन्तिम चक्रबद्ध श्लोक से ज्ञात होता है कि उन का मूल नाम शान्तिवर्मा था । कथाओं के अनुसार२ मुनिजीवन में वे भस्मक रोग से पीडित थे तथा इस के उपचार के लिए अन्यान्य वेष धारण कर सर्वदूर घमे थे। अन्त में वाराणसी में उन का रोग शान्त हुआ और वहां के शिवमन्दिर में मन्त्रप्रभाव से चन्द्रप्रभ की मूर्ति प्रकट करने से वे विशेष प्रसिद्ध हुए । उन का स्वयम्भू स्तोत्र इसी अवसर की रचना कहा जाता है । तदनंतर वादी के रूप में भी उन्हों ने
१) अष्टसहस्री प्रस्तावना पृ. ७ । २) प्रभाचन्द्र तथा नेमिदत्त के कथाकोशों में यह कथा है।
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