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सांख्यदर्शनविचारः
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हेतोरसिद्धत्वात् । तस्मान्महदादिकं नोत्पद्यते सर्वदा विद्यमानत्वात् आत्म. वत् । तथा महदादिकं न विनश्यति सर्वदा विद्यमानत्वात् आत्मवदिति च । ननु विद्यमानस्यापि महदादिपटादेर्यदा' आविर्भावो भवति तदा उत्पत्तिव्यवहारः यदा तिरोभावो भवति तदा विनाशव्यवहार एव। न महदादिपटादेरुत्पत्तिविनाशो विद्यते इति चेत् तर्हि आविर्भावः सर्वदास्ति कदाचिद् वा। सर्वदास्ति चेत् महुदादिजगतः सर्वदा आविर्भूतत्वात् महदादिकार्याणां कदाचिदप्यात्मलाभो न स्यात् । अथ प्रागविद्यमान: क्रियत इति चेत् तर्हि असत्कार्यस्योत्पत्तिरङ्गीकृता स्यात् । तस्माद् विद्यमानतस्वाद्युपादानकारणकं पटादिकार्यमविद्यमानमेवोत्पद्यत इत्यगीकर्तव्यम्। है तथा जब उनका तिरोभाव होता है तब उन्हें नष्ट हुआ कहा जाता हैवास्तव में उत्पत्ति या विनाश नही होते-आविर्भाव या तिरोभाव ही होते है। इस मत का निरसन.पहले किया है। यहां प्रश्न होता है कि यह आविर्भाव नया उत्पन्न होता है या सर्वदा विद्यमान होता है ! यदि आविर्भाव सर्वदा विद्यमान हो तो अमुक समय सृष्टि हुई या संहार हुआ यह कहना अथवा प्रकृति से महान् उत्पन्न हुआ आदि कहना सम्भव नही होगा। दूसरे पक्ष में यदि आविर्भाव की उत्पत्ति स्वीकार की जाती है तो कार्य को ही उत्पत्ति स्वीकार करने में क्या हानि है ? आविर्भाव भी पहले विद्यमान तो होता है किन्तु उस का आविर्भाव बाद में होता है यह कथन अनवस्था दोर का सूचक है - यदि पहले आविर्भाव का दूसरा आविर्भाव होता है यह मानें तो दूसरे आविर्भाव का भी तीसरा आविर्भाव तथा तीसरे का चौथा आविर्भाव - इस-प्रकार अनन्त परम्परा माननी होगी। इसी प्रकार तिरोभाव भी सर्वदा विद्यमान होता है अथवा नया उत्पन्न होता है ? यदि तिरोभाव सर्वदा विद्यमान हो तो कभी किसी कार्य का स्वरूप प्रतीत ही नही होगा। यदि तिरोभाव नया उत्पन्न होता है यह मानें तो कार्य की भी उत्पत्ति मानने में कोई हानि नही है। तिरोभाव का पुनः आविर्भाव मानने में पूर्वोक्त अनवस्था दोष आता है। अतः वस्त्र आदि कार्य पहले अविद्यमान होते है तथा तन्तु आदि उपादान कारणों से नये उत्पन्न होते हैं यही मानना उचित है।
१ प्रकटीभावः । २ अप्रकटीभावः ।
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