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पृ. ५२]
टिप्पण
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__जगत का उपादान अचेतन है अतः वह चेतन ईश्वर द्वारा निर्मित है यह अनुमान वाचस्पति ने प्रस्तुत किया है।
पृष्ठ ४९-न्याय मत में आत्मा को स्वतः चेतन नही माना है-आत्मा चेतना के सम्बन्ध से चेतन है यह उन का मत है; जैन मत में द्रव्य और गुण में यह भेद स्वीकार नही किया जाता, आत्मा को स्वरूप से ही चेतन माना है । इस का निरूपण विद्यानन्द ने ईश्वर के सम्बन्ध में किया है ।
पृष्ठ ५०, परि. २२-ईश्वर के खण्डन में ईश्वर के शरीर का विचार प्रमुख है, विद्यानन्द ने इस का विस्तार से वर्णन किया है |
पृष्ठ ५१–न्यायदर्शन में ईश्वर और मुक्त पुरुषों में भेद किया हैईश्वर को नित्यमुक्त, नित्य ज्ञानी माना है; जैन मत में मुक्त पुरुषों में ऐसा कोई भेद स्वीकार नहीं किया जाता, सभी सिद्धों की अवस्था समान मानी गई हैसभी सिद्धों का अनन्त ज्ञान सादि है-अनादि नही है। अतः ईश्वर का ज्ञान अनादि-अनन्त अथवा नित्य है यह मत जैनों को मान्य नही। इस विषय में मीमांसक भी जैनों से सहमत है । मुक्त जीव के रागद्वेष नही होते अतः कार्य करने की इच्छा और प्रयत्न भी मुक्तों में सम्भव नही हैं।
यहां आत्मा के ज्ञान आदि गुणों को अनित्य कहा है यह न्याय मत की अपेक्षा से समझना चाहिए; जैन मत में गुण द्रव्य के सहभावी होते हैं अतः गुणों को नित्य माना है तथा पर्यायों को अनित्य माना है-गुणों की दृष्टि से द्रव्य नित्य होता है तथा पर्यायों की दृष्टि से अनित्य होता है। इसी प्रकार ज्ञान को विभु (व्यापक द्रव्य) का गुण मानना और उस के लिए आकाश के गुण शब्द का उदाहरण देना भी प्रतिपक्षी (न्याय ) मत की ही अपेक्षा से है; जैन मत में आत्मा को सर्वव्यापी नही माना है तथा शब्द को आकाश का गुण भी नहीं माना है यह लेखक स्वयं आगे स्पष्ट करते हैं (पृ. १९२ तथा ९३)।
पृष्ठ ५२-ईश्वर के शरीर के व्यापक या अव्यापक होने की चर्चा में शरीर के स्वरूप का विचार महत्त्वपूर्ण है । जैन मत में पांच प्रकार के शरीर माने हैं
१) न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका पृ. ५९८. २) आप्तपरीक्षा ६६: नेशो ज्ञाता न चाज्ञाता स्वयं ज्ञानस्य केवलम् । समवायात् सदा ज्ञाता यद्यात्मैव स किं स्वतः॥ इत्यादि। ३) आप्तपरीक्षा ११:प्रणेता मोक्षमार्गस्य नाशरीरोऽन्यमुक्तवत् । सशरीरस्तु नाकर्मा संभवत्यज्ञजन्तुवत् ॥ इत्यादि । ४ ) विद्यानन्द-तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक पृ. ३६०: बोधो न वेधसो नित्यः बोधत्वात् । कुमारिल-मीमांसाश्लोकवार्तिक पृ. ६६०: अशरीरो ह्यधिष्ठाता नात्मा मुक्तात्मवद् भवेत् ॥ वि.त.२१
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