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विश्वतत्त्वप्रकाशः
[पृ. ८९
के बाद ही वेदों की रचना हुई है । इसी से मिलताजुलता तर्क ‘पात्रकेसरी ने प्रस्तुत किया है।
'यस्मिन् देशे' इत्यादि वाक्य किसी ब्राह्मण ग्रन्थ के हैं।
पृष्ठ ९१-वेद नित्य हैं यह बतलाने के लिए मीमांसा दर्शन में शब्द को ही नित्य माना है । मीमांसकों की दृष्टि में मुख द्वारा उच्चारित ध्वनि शब्द नही है , इस ध्वनि द्वारा जो व्यक्त होता है वह शब्द है । कल जिस शब्द का उच्चारण किया था उसी शब्द का आज उच्चारण करता हूं-यह प्रतीति तभी संभव है जब शब्द नित्य हो और ध्वनि उस शब्द को सिर्फ व्यक्त करता हो । इस मत का प्रतिपादन मीमांसास्त्र तथा उस के शाबरभाष्य में मिलता है।
अकलंक आदि जैन आचार्यों ने इस युक्तिवाद को गलत माना है। उन का कथन है कि कल का शब्द और आज का शब्द समान होता है-एक ही नही होता,४ अतः इस आधार पर शब्द को नित्य नही माना जा सकता । जैसे नृत्य की मुद्राएं अस्थायी है उसी तरह मुख द्वारा उच्चारित शब्द भी अस्थायी है।
पृष्ठ ९३-शब्द बाह्य इन्द्रियों से ज्ञात होता है अतः अनित्य है इस अनुमान के दो रूपान्तर यहां दिये हैं। भाट्ट मीमांसक शब्द को द्रव्य मानते हैं अतः उन को उत्तर देते समय कहा कि शब्द बाह्य इन्द्रियों से ज्ञात होनेवाला द्रव्य है अतः अनित्य है। प्राभाकर मीमांसक शब्द को गुण मानते हैं अतः उन से कहा है कि यह गुण बाह्य इन्द्रियों से ज्ञात होता है अतः अनित्य है। - पृष्ठ ९५-अनन्तरं तु वक्त्रेभ्यः इत्यादि उद्धरण मत्स्यपुराण ( अ.१४५ श्लो. ५८) का है।
इस पृष्ठ पर सहस्राक्षः सहस्रपात् आदि वाक्य का अपाणिपादः आदि वाक्य से जो विरोध बतलाया है वह बहुत अंश में शाब्दिक विरोध है क्यों कि पहले वाक्य का सहस्र शब्द विराट विश्वात्मक पुरुष की अतिशय शक्ति का प्रतीक मात्र है, अक्षरशः हजार यह उस का अर्थ नहीं है। लेखक ने सहस्राक्ष
१) वेदोल्लिखित राजाओं में परीक्षित् के पुत्र जनमेजय सब से बाद के प्रतीत होते हैं। पुराणों के अध्येता विद्वानों के अनुसार जनमेजय का समय सनपूर्व ९५० से १३५० के बीच में कहीं स्थिर होता है । इस दृष्टि से 'दि वेदिक एज' प्रन्थ का 'ट्रेडिशनल हिस्टरी आफ्टर परिक्षित् ' शीर्षक प्रकरण देखने योग्य है। २) सजन्मचरणर्षिगोत्रचरणादिनामश्रुतेः......पुरुषकर्तृकैव श्रुतिः॥ श्लोक १४. ३) नित्यस्तु स्याद् दर्शनस्य परार्थत्वा । सूत्र १।१।१८ ४) न्यायविनिश्चय का. ४२५ सादृश्यात् नैकरूपत्वात् स एवायमिति स्थिति
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