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विश्वतत्त्वप्रकाशः
[पृ.२७६
कोई स्पष्ट प्रमाण नही है । संसारी जीव में भी शक्तिरूप में सिद्ध जीव की समस्त विशेषताएं होती है यह कुछ आधुनिक जैन पण्डितों का कथन इस दृष्टि से विचारणीय है । वैसे आधारभूत प्रति के टिप्पणलेखक के अनुसार यहां स्वयूथ्य शब्द सांख्य दार्शनिक के लिए ही है।
पृष्ठ २८३-विविक्ते इत्यादि पद्य आसुरि आचार्य का है ऐसा शास्त्रवार्तासमुच्चय (श्लो. २२२) तथा योगबिंदु (श्लो. ४५०) में हरिभद्र ने कहा है। इसी रूप में मल्लिषेण ने स्याद्वादमंजरी में (पद्य १५) भी इसे उद्धृत किया है । सांख्य परम्परा के अनुसार आसुरि मुनि कपिल महर्षि के साक्षात् शिष्य थे तथा उन्हीं से उपदेश प्राप्त कर पंचशिख ने षष्ठितन्त्र नामक ग्रन्थ लिखा था।
पृष्ठ २८५-दो निरोधों के पारिभाषिक नाम हैं- प्रतिसंख्या निरोध तथा अप्रतिसंख्या निरोध । स्वाभाविक रूप से होनेवाले पदार्थों के नाश को अप्रतिसंख्या निरोध कहते हैं तथा जिस का कोई कारण दिखलाई देता हो ऐसे (निर्वाणादि) नाश को प्रतिसंख्या निरोध कहते हैं ।
विनाश की स्वाभाविकता का तार्किक समर्थन यहां धर्मकीर्ति तथा शान्तरक्षित२ के शब्दों में प्रस्तुत किया है।
पृष्ठ २८६-अर्थक्रिया करता हो वह सत् है यह व्याख्या धर्मकीर्ति ने भी दी है किन्तु उस के शब्दों में और यहां उद्धृत श्लोक में थोडा अन्तर है।
- पृष्ठ २८७---यदि विनाश को स्वाभाविक माना तो चित्तसन्तान का निरोध यह जो मोक्ष है वह भी स्वाभाविकही होगा, फिर आठ अंगों के मोक्षमार्ग का प्रतिपादन व्यर्थ होगा यह आपत्ति समन्तभद्र ने उपस्थित की है ।
पृष्ठ २८८--पदार्थों के पूर्णतः क्षणिक होने पर उन में अर्थक्रिया सम्भव नही होगी इस मत को भदन्त योगसेन जैसे बौद्ध आचार्य भी मानते थे ऐसा तत्त्वसंग्रह के वर्णन से प्रतीत होता है (पृ. १५३ )।
पृष्ठ २९१-प्रत्यभिज्ञान से तथा निक्षेपादिग्रहण से आत्मादि पदार्थों की नित्यता का समर्थन समन्तभद्र ने किया है ।
१)प्रमाणवार्तिक ३।१९३ अहेतुत्वाद् विनाशस्य । २) तत्त्वसंग्रह का.३५३-तत्र ये कृतका भावास्ते सर्वे क्षणभङ्गिनः। विनाशं प्रति सर्वेषामनपेक्षतया स्थितेः ॥ ३) प्रमाणवार्तिक ३१३ अर्थक्रियासमर्थ यत् तदत्र परमार्थसत् । ४) आप्तमीमांसा का. ५२ अहेतुखात् विनाशस्य हिंसाहेतुर्न हिंसकः । चित्तसन्ततिनाशश्च मोक्षो नाष्टाङ्गहेतुकः।। ५) आप्तमीमांसा का. ४१ क्षणिकैकान्तपक्षेऽपि प्रेत्यभावाद्यसम्भवः । प्रत्यभिज्ञाद्यभावान्न कार्यारम्भः कुतः फलम् ।। युक्त्यनुशासन श्लो. १६-प्रतिक्षणं भङ्गिघु तत्पृथक्त्वात् न मातृघाती स्वपतिः स्वजाया। दत्तग्रहो नाधिगतस्मृतिर्न न क्त्वार्थसत्यं न कुलं न जातिः ।।
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