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टिप्पण
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आदि शब्द अवतार के शरीर के सम्बन्ध में लिए हैं किन्तु यह वर्णन अवतार के शरीर का नहीं है । यह विश्वात्मक पुरुष का रूपकात्मक वर्णन है ।
यह देखना मनोरंजक होगा कि ऐसा शाब्दिक विरोध काव्य के अलंकार के रूप में जैन स्तोत्रों में कई जगह पाया जाता है । धनंजय कवि के विषापहार स्तोत्र का पहला पद्य इस का अच्छा उदाहरण है? |
पृष्ठ ९७-९८ - किसी ग्रन्थ या विषय के ज्ञान का माहात्म्य अतिशयोक्ति का उपयोग कर बतलाया जाता है । अश्वमेध यज्ञ करने का फल और उसे जानने का फल समान बतलाना भी ऐसी ही अतिशयोक्ति है । इसे विरोध कहना ठीक प्रतीत नहीं होता । इस तरह के अर्थवाद ( केवल स्तुति के लिए की गई अतिशयोक्ति ) जैन साहित्य में भी मिलते हैं । पिछली शताब्दी में पंडित भागचन्द द्वारा रचित महावीराष्टकस्तोत्र का अन्तिम पद्य इस का अच्छा उदाहरण है २ । जैन साहित्य में पंचनमस्कारमंत्र के माहात्म्य की जो कई कथाएं है वे इसी तरह के अर्थवाद - साहित्य की उदाहरण कही जा सकती हैं ।
पृष्ठ ९९-१०० - किसी अनुमान में साध्य की सिद्धि के लिए दृष्टान्त दिया जाता है । दृष्टान्त में प्रस्तुत अनुमान से असम्बद्ध कोई गुण देखकर उसे साध्य में भी विद्यमान मान लेना यह एक दोष होता है जिसे उत्कर्षसम जाति कहते है | उदाहरणार्थ- शब्द अनित्य है क्यों कि वह घट जैसा कृत्रिम है यह अनुमान है इस में घट का उदाहरण ' जो कृत्रिम होते हैं वे अनित्य होते हैं' इस नियम के लिए है । इसे न समझ कर कोई कहे कि घट दृश्य है वैसे शब्द भी दृश्य सिद्ध होगा - तो यह उत्कर्षसम जाति का उदाहरण होगा । प्रस्तुत अनुमान में यज्ञ में प्राणिव पाप का कारण है यह साध्य है तथा प्राणिवध पाप का कारण होता है यह हेतु है । सर्वत्र देखे गए प्राणिवध उदाहरण हैं । इस में यह कहें कि सर्वत्र के प्राणिवध तो निषिद्ध हैं - यज्ञ के प्राणिवध निषिद्ध नहीं हैं अत: वे पापकारण नही हैं तो यह उचित नही है । यह उत्कर्षसम जाति का उदाहरण है क्यों कि यहां निषिद्धत्व यह उदाहरण का विशेष साध्य में भी विद्यमान मान लिया गया है ।
अपकर्षसम जाति वह दोष होता है जिस में उदाहरण के ऐसे अंश पर जोर दिया जाता है जो साध्य के विरुद्ध है । उदाहरणार्थ शब्द अनित्य है क्यों
१) स्वात्मस्थितः सर्वगतः समस्तव्यापारवेदी विनिवृत्तसङ्गः । प्रवृद्धकालोऽप्यजरो वरेण्यः पायादपायात् पुरुषः पुराण ॥ १ ॥ २) महावीराष्टकं स्त्रोत्रं भक्त्या भागेन्दुना कृतम् । यः पठेत् श्रुणुयात् चापि स याति परमां गतिम् ॥ ९ ॥
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