Book Title: Vishwatattvaprakash
Author(s): Bhavsen Traivaidya, Vidyadhar Johrapurkar
Publisher: Gulabchand Hirachand Doshi

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Page 470
________________ - पृ.२२४ ] टिप्पण ३३७ पृ. २१५ - समवाय के अस्तित्व के खण्डन की यहां की पद्धति विद्यानन्द के अनुकरण पर है । पृ. २१६ --- समवाय का लक्षण यहां प्रशस्तपादभाष्य से उद्धृत किया है उस में कुछ अंतर है । मूल में इप्रत्ययहेतु ऐसा शब्द है उसे यहां इदंप्रत्यय हेतु ऐसा लिखा है । अयुतसिद्धि की कल्पना का खण्डनप्रकार भी विद्यानन्द तथा प्रभाचन्द्र के ग्रन्थों में पाया जाता है ? | समवाय की कल्पना का विस्तृत खण्डन शंकराचार्य ने ब्रह्मसूत्र भाष्य में प्रस्तुत किया है । द्रव्य तथा गुण में भेद करना उचित नही तथा पदार्थों से स्वतन्त्र कोई सम्बन्ध नही होता यह उन का निष्कर्ष है ३ । पृ. २२१ - - संख्या को गुण न मानने का तर्क प्रभाचन्द्र ने भी प्रस्तुत किया है । पृ. २२३ - - परमाणुओं में स्पर्शादि चारों गुण होते हैं इस का तार्किक रूप भी न्यायकुमुदचन्द्र में प्राप्त होता है । पृष्ठ २२४ -- मन अणु आकार का है इस का निर्देश वैशेषिकसूत्र तथा न्यायसूत्र में मिलता है । इस का कुछ विचार लेखक ने पहले किया है ( पृष्ठ २०० - १ ) | श्रवणादि इन्द्रिय आकाशादि भूतों से निर्मित हैं इस का निर्देश भी न्यायसूत्र में मिलता है । इस का तार्किक समर्थन न्यायवार्तिक टीका में ( पृ .. ५३० ) तथा न्यायमंजरी में ( पृ. ४८१ ) मिलता है । इस के खण्डन का तरीका प्रभाचन्द्र जैसा है ( न्यायकुमुदचन्द्र पृ. १५६-७ ) । १) आप्तपरीक्षा लो. ५२ समवायान्तराद् वृत्तौ समवायस्य तत्त्वतः । समवायिषु तस्यापि परस्मादित्यनिष्ठितिः ॥ यही बात युक्त्यनुशासन पद्य ७ की टीका में विस्तार से स्पष्ट की है । २) आप्तपरीक्षा लो. ४९ युतप्रत्ययहेतुत्वाद् युत सिध्दिरितीरणे । विभुद्रव्यगुणादीनां युतसिद्धिः समागता || न्यायकुमुदचन्द्र पृ. २९४ - २९७ तक यह चर्चा विस्तार से है । ३) अध्याय २ पाद २ सूत्र १७ नैव द्रव्यगुणयोः अग्निधूमयोरिव भेदप्रतीतिः अस्ति तस्माद् द्रव्यात्मकता गुणस्य । नापि संयोगस्य समवायस्य वा सम्बन्धस्य सम्बन्धिव्यतिरेकेण अस्तित्वे किंचित् प्रमाणमस्ति । ४) न्यायकुमुदचन्द्र पृ. २७६ गुणत्वं चास्या न सम्भाव्यं गुणेष्वपि सद्भावात् । ५) जलादयो गन्धादिमन्तः स्पर्शवत्त्वात् पृ. २३८ । ६) वैशेषिक सूत्र७।१।२३ तदभावादणु मनः । न्यायसूत्र ३ | २ | ६९ यथोक्तहेतुत्वाच्चाणु । ७) न्यायसूत्र १।१।१२ घ्राणरसनचक्षुस्त्वक्श्रोत्राणीन्द्रियाणि भूतेभ्यः । वि. तु. २२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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