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- पृ. २७]
टिप्पण
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ईश्वर के समर्थन में यह मुख्य कारण बतलाया है । यहां लेखक द्वारा प्रयुक्त वाक्य प्रभाचन्द्र के अनुकरण पर हैं
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परि. १२, पृष्ठ २३. - यहां उल्लिखित पूर्वपक्ष पृ. १ पर आया है ! जीव शरीर से भिन्न तथा अनादि-अनन्त है यह बात हमारे समान अल्पज्ञ लोग अनुमान से जानते हैं किन्तु योगी इसी को प्रत्यक्ष द्वारा भी जानते हैं । यहां योगी - प्र - प्रत्यक्ष शब्द विशिष्ट अर्थ में लेना चाहिए - योगी का सर्वज्ञ यह अर्थ है । सर्वज्ञ के अस्तित्व का समर्थन अगले कुछ परिच्छेदों में प्रस्तुत किया है ।
परि. १३, पृ. २४१ - यः सर्वाणि इत्यादि श्लोक जयसेन ने पंचास्तिकाय की तात्पर्यटीका में उद्धृत किया है किन्तु इस का मूल स्थान ज्ञात नही हुआ ।
पृष्ठ २५ – सर्वज्ञ में बाधक प्रमाण नही हैं यह तर्क पहले बतलाया है (पृ. ६ ) इसका विवरण यहां प्रारम्भ होता है । जगत् में कहीं भी किसी समय सर्वज्ञ नही होते यह जो प्रत्यक्ष से जानेगा वह स्वयं ( सब जगत को जानने के कारण ) सर्वज्ञ होगा अतः प्रत्यक्ष से सर्वज्ञ का बाघ नहीं होता । यह वाक्य अकलंक तथा विद्यानन्द के अनुकरण पर है रे ।
पृष्ठ २६ – राग, द्वेष तथा अज्ञान की मात्रा प्रत्येक व्यक्ति में कम-अधिक देखी जाती है अतः किसी व्यक्ति में उनका सर्वथा अभाव भी होता है यह अनुमान समन्तभद्र, पात्रकेसरी आदि की रचनाओं में पाया जाता है । इसी के उलटा कथन है- ज्ञान, वैराग्य का किसी में परम प्रकर्ष होता है क्यों कि इन की मात्रा प्रत्येक व्यक्ति में कम अधिक देखी जाती है" ।
पृष्ठ २७ – पुरुष होना अथवा वक्ता होना सर्वज्ञ होने में बाधक है यह मीमांसकों का कथन है । उन का तात्पर्य यह है कि शरीर की रक्षा के लिए आवश्यक भोजनादि क्रियाएं करते समय सर्वज्ञ का चित्त उन क्रियाओं में लगा
१) न्यायसूत्र ४।१।१९ : ईश्वरः कारणं पुरुषकर्माफल्यदर्शनात् । २) न्यायकुमुदचन्द्र पृ. ३४८: कथमन्यथा सेवाकृष्यादौ सममीहमानानां केषांचिदेव फलयोगः अन्येषां च नैष्फल्यं स्यात् । ३) सिद्धिविनिश्वय ८ १६ : असकलज्ञं जगद् विदन् सर्वज्ञः स्यात् । ; आप्तपरीक्षा ९७: प्रत्यक्षमपरिच्छिन्दत् त्रिकालं भुवनत्रयम् । रहितं विश्वतत्त्वज्ञैर्न हि तद् बाधकं भवेत् ॥ ४) आप्तमीमांसा ४ : दोषावरणयोर्हानिः निःशेषास्त्यतिशायनात् । क्वचिद् यथा स्वहेतुभ्यो बहिरन्त लक्ष्यः ||; पात्रकेसरिस्तोत्र १८ : प्रहाणमपि दृश्यते क्षयवतो निमूलात् क्वचित् तथायमपि युज्यते ज्वलनवत् कषायक्षयः ।। ५ ) यह कथन योगसूत्र ( १-२५ ) ( तत्र निरतिशयं सर्वज्ञबीजम् ) के व्यासकृत भाष्य में भी है ।
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