Book Title: Vishwatattvaprakash
Author(s): Bhavsen Traivaidya, Vidyadhar Johrapurkar
Publisher: Gulabchand Hirachand Doshi

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Page 447
________________ ३१४ विश्वतत्त्वप्रकाशः [पृ. १७ में 'असरीरा जीवघणा' यह गाथांश लेखक ने प्रमाणरूप में उद्धृत किया है। इन शब्दों से प्रारम्भ होनेवाली दो गाथाएं हैं-एक' देवसेनकृत तत्त्वसार में (क्र. ७२) तथा दूसरी२ सिद्धभक्ति की क्षेपक गाथाओं में जीव शरीर से अन्यत्र भी रहता है इस विषय में यहां लेखक ने अनुमान और आगम इन दो प्रमाणों का उल्लेख किया है। अन्य आचार्यों ने प्रत्यक्ष प्रमाण से भी इस बात का समर्थन किया है-किसी जीव को अपने पूर्वजन्म का स्मरण होता है तब वह प्रत्यक्ष से ही जानता है कि उस का जीव पहले वर्तमान शरीर से भिन्न किसी दूसरे शरीर में था३, इसी प्रकार कोई व्यक्ति मृत होने पर भूत अथवा पिशाच योनि में जन्म ले कर किसी दूसरे व्यक्ति के शरीर में वास करता है ऐसे उदाहरण भी प्रत्यक्ष प्रमाण से ज्ञात हैं। परि, ७, पृ. १७-पहले उद्भट आचार्य का मत पृ. ८ पर बतलाया हे उस का यह खण्डन है । इस परिच्छेद में तथा अगले परिच्छेद में अपनाया गया खण्डन का प्रकार परि. ६ जैसा ही है। परि. ९, पृष्ठ १९-२०-यहां उल्लिखित पूर्वपक्ष पृ. ८ पर बतलाया है। चैतन्य का कारण चैतन्य ही होता है यह तर्क भी पहले कहा है (पृ. ३)। परि. १०,पृष्ठ २०-२१ ---जगत के सब अच्छे-बुरे कार्य प्राणियों के अदृष्ट से ही होते हैं यह लेखक का अभिमत है। पाषाणमूर्ति की पूजा होती है इस का कारण पाषाण-शरीर में स्थितजीव का शुभ कर्म है-यह विधान इसी अभिमत का स्पष्टीकरण है । प्रामाणिक ज्ञान पुण्य के उदय से होता है तथा मिथ्याज्ञान पाप के उदय से होता है यह लेखक का विधान भी (पृष्ठ १०३) इसी मत के कारण हुआ है । इस एकान्त मत की उचितता विचारणीय है । परि. ११, पृष्ठ २२-अदृष्ट अथवा कर्म-सिद्धान्त की मूलभूत विचारसरणि इस परिच्छेद मे आई है। प्रत्येक जीव को उस के प्रत्येक कार्य का फल अवश्य मिलता है-यह कल्पना आधारभूत मानकर कर्म सिद्धान्त की रचना हुई ह । वर्तमान जीवन में सभी कार्यों के फल मिलते हुए दिखाई नही देतेअतः कुछ फल पूर्वजन्म के कार्यों के हैं तथा कुछ फल अगले जन्म में मिलेंगे यह मानना जरूरी होता है । न्यायादि दर्शनों में जीव को कमों का फल देनेवाले १) असरीरा जीवघणा चरमसरीरा हवंति किंचूणा । जम्मणमरणविमुक्का णमामि सव्वे पुणो सिद्धा ॥ ७२ ॥. २) असरीरा जीवघणा उवजुत्ता दंसणे य णाणे य। सायारमणाया। लक्खणमेयं तु सिद्धाणं ॥. ३) अकलंक-न्यायविनिश्चय श्लो.२४९-जातिस्मराणां संवादादपि संस्कारसंस्थितेः । पात्रकेसरिस्तोत्र श्लो. १५-स्मृतिश्च परजन्मनः स्फुट मिहेक्ष्यते कस्यचित्। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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