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- पृ. ३३ ।
टिप्पण
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लेखक ने ही आगे किया है ( पृ. ४१-४२ ) । यहां के अनुमान में सब वस्तुएं ( सद् असवर्ग ) यह पक्ष हैं, अनेक होना यह हेतु है, एक ज्ञान का विषय होना यह साध्य है तथा अंगुलियां यह उदाहरण है । यहां हेतु पक्ष में विद्यमान है अतः स्वरूप से असिद्ध नही है, तथा व्यधिकरण- असिद्ध भी नही है ( व्यधिकरण- असिद्ध वह होता है जो पक्ष में न हो कर अन्यत्र कहीं विद्यमान हो ) । यहां पक्ष का अस्तित्व सुनिश्चित है अतः हेतु आश्रय-असिद्ध नही है तथा हेतु का अस्तित्व पक्ष में निश्चित है अतः हेतु भाग- असिद्ध अथवा अज्ञात - असिद्ध, अथवा सन्दिग्ध - असिद्ध भी नही है । हेतु पक्ष से विरुद्ध अन्यत्र कहीं नहीं है अतः वह विरुद्ध अथवा अनैकान्तिक भी नही है । प्रतिवादी को असिद्ध प्रतीत होनेवाला तत्त्व हम सिद्ध कर रहे हैं अतः यह हेतुप्रयोग अकिंचित्कर (व्यर्थ ) भी नही है | हेतुका पक्ष में अस्तित्व निश्चित है अतः इसे अनध्यवसित ( अनिश्चित ) नहीं कह सकते । साध्य के विरुद्ध कोई प्रमाण नही है अतः यह हेतु कालात्ययापदिष्ट ( बाधित ) भी नही है । यहां दृष्टान्त (उदाहरण = अंगुलीसमूह ) में साध्य ( एक ज्ञान का विषय होना ) तथा साधन ( अनेक होना ) दोनों विद्यमान हैं अतः दृष्टान्त भी दोषरहित दृष्टान्त विषय का अस्तित्व प्रसिद्ध है अतः वह आश्रय - असिद्ध नहीं है तथा अनेक वस्तुएं एक ज्ञान का विषय होती है यह अच्छी तरह ज्ञात होती है अतः यह विपरीतव्यासिक भी नही है ।
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व्याप्ति भी इस दृष्टान्त से
पृष्ठ ३३ -- अनेक वस्तुएं एक ज्ञान का विषय होती है इस अनुमान के विरोध में मीमांसकों ने कहा कि अनेक वस्तुएं एक ज्ञान का विषय नही होती हैं । इस पर जैन सिद्धान्ती का कथन है कि अनेक वस्तुएं ( सेना, वन आदि ) हमारे जैसों के ही ज्ञान का विषय होती हैं । प्रत्युत्तर में मीमांसक आक्षेप करते हैं कि आप के ज्ञान का विषय तो सब वस्तुएं नहीं होतीं । इस प्रत्युत्तर में मीमांसकोंने यह ध्यान नहीं रखा कि जैनों का साध्य तो किसी एक ज्ञान का सब वस्तुओं को जानना है - हमारे जैसे व्यक्ति सभी वस्तुएं जानते हैं यह जैनों का साध्य ही नही है । अतः अपने पक्ष का दोष दूर न देने की गलती वे कर रहे हैं - इस को वाद की नामक निग्रहस्थान कहते हैं । मूल अनुमान में दोष न बतला कर विरोधी अनुमान प्रस्तुत करना भी वाद की परिभाषा में दोष ही है - इसे प्रकरणसम - जाति कहते हैं ।
कर प्रतिपक्ष में दोष
परिभाषा में मतानुज्ञा
१) न्यायसूत्र ५।२।२१ स्वपक्षदोषाभ्युपगमात् परपक्षे दोषप्रसंगो मतानुज्ञा ।
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