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विश्वतत्त्वप्रकाशः
[ ८७
एकस्मिन् समये समुत्पत्तिप्रसंगात् । तथा च तदनन्तरसकूल समयेषु अर्थक्रियाशून्यत्वेना सत्वप्रसंगात् । तस्मात् क्षणिकपदार्थे क्रमयौगपद्याभ्यामर्थक्रियाकारित्वा संभवेन सत्त्वासंभवात् हेतोः' स्वरूपासिद्धत्वं समर्थितम् । [ ८७ प्रत्यभिज्ञाप्रामाण्यम् । ]
तस्माद् दीपादयो वीताः पदार्था अक्षणिकाः स एवाहं स एवायमिति प्रत्यभिज्ञाविषयत्वात् । यः क्षणिकः स प्रत्यभिज्ञाविषयो न भवति यथा प्रदीपशिखानिर्गतो धूमः, तथा चायं तस्मात् तथेति प्रतिपक्षसिद्धेः। ननु प्रत्यभिज्ञानस्य प्रामाण्याभावात् न ततोऽक्षणिकत्वसिद्धिरिति चेन्न । वीतं प्रत्यभिज्ञानं प्रमाणमेव अबाधितविषयत्वात् निर्दुष्टप्रत्यक्षवदिति तस्य प्रामाण्यसिद्धेः । अथ प्रत्यभिज्ञानस्याबाधितविषयत्वमसिद्धमिति चेन्न । तद्विषयस्य बाधकासंभवात् । न तावत् सविकल्पकं प्रत्यक्षं बाधकं तस्य स्थिरार्थग्राहकत्वेन साधकत्वात् । नापि निर्विकल्पकं प्रत्यक्षं बाधकं तस्यैवाभावात् । भावे वारे तस्य स्थिरार्थवार्तानभिज्ञत्वेन बाधकत्वानु
का क्षण एकही हो तो सब कार्य अपने कारण के ही समय हो जायेंगेकारण का समय और कार्य का समय भिन्न नही रहेगा | अतः एकही समय सब कार्य हो जाने पर बाकी समयों में कोई कार्य नही होगा - सब शून्य होगा । अतः क्षणिक पदार्थों में कार्यकारण सम्बन्ध भी सम्भव नही है । अतः जो सत् हैं वे क्षणिक हैं यह कथन अयोग्य है ।
८७. प्रत्यभिज्ञा प्रामाण्य - मैं वही हूं, ये पदार्थ वही हैं- इस प्रकार प्रत्यभिज्ञान से भी दीपादि पदार्थों का एक से अधिक क्षणों में अस्तित्व सिद्ध होता है । जो पदार्थ एक क्षण में नष्ट हो जाता है उसे बाद में 'यह वही है ' इस प्रकार पहचानना सम्भव नही । बौद्ध प्रत्यभिज्ञान को प्रमाण नही मानते किन्तु उन का यह मत उचित नहीं है । प्रत्यभिज्ञान प्रमाण है क्यों कि उस का विषय निर्दोष प्रत्यक्ष के समान अबाधित होता है- जो ज्ञान बाधित नही होता उसे अवश्य ही प्रमाण मानना चाहिये । प्रत्यभिज्ञान में सविकल्पक प्रत्यक्ष बाधक नही हो सकतासविकल्पक प्रत्यक्ष से स्थिर पदार्थों का ज्ञान होता है अतः वह प्रत्यभि
१ सध्वात् इति हतोः । २ अयं पदार्थः प्रत्यभिज्ञानविषयः तस्मात् तथेति अक्षणिकः । ३ निर्विकल्पकस्य भावे ।
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