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-पृ. ४]]
टिप्पण
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होता है। वह वर्तमान तथा सम्बद्ध विषय तक मर्यादित नहीं होता-यही सर्वश सिद्धि का मुख्य विषय है।
पृ. २--जीव शरीर का कार्य है इस मत का निरसन परि. ७ में प्रस्तुत किया है।
आकाश के समान जीव व्यापक है व अमूर्त है अतः वह नित्य है यह तर्क चार्वाक के प्रति उपयुक्त नहीं है क्यों कि चार्वाक आकाश द्रव्य को भी मान्य नही करते-उन के मत में पृथ्वी, जल, तेज, वायु ये चार ही द्रव्य हैं-साथही वे जीव को अमूर्त या व्यापक भी नही मानते ।
पृ. ३----चैतन्य चैतन्य से ही उत्पन्न होता है अतः जन्मसमय का चेतन जीव भी पूर्ववर्ती चेतन जीव का कार्य है -इस प्रकार जीव के अनादि होने की सिद्धि विद्यानन्द ने प्रस्तुत की है २ । इस के पहले अकलंक ने इसी अनुमान का एक रूपान्तर प्रस्तुत किया है ३ | चार्वाकों ने इस का उत्तर दो प्रकारों से दिया है। एक तो यह कि जन्म समय के चैतन्य को उत्पत्ति शरीर से होती है -शरीर ही उस चैतन्य का उपादान कारण है । दूसरा उत्तर यह है कि जन्म समय के चैतन्य का उपादान कारण उस शिशु के मातापिता का चैतन्य है । इस दूसरे कथन के अनुसार पुत्र ही पिता का पुनर्जन्म है और पिता ही पुत्र का पूर्वजन्म है -वंशपरम्परा ही चैतन्य के सातत्य की द्योतक है। इस मत का समर्थक एक वाक्य ऐतरेय ब्राह्मण में उपलब्ध होता है । ग्रन्थकर्ता ने प्रस्तुत ग्रन्थ में इस अनुमान का कोई उत्तर नही दिया है-सम्भवतः इस लिए कि जैन दृष्टि से यह बहुत स्पष्ट है; शिशु के शरीर का निर्माण मातापितापर अवलम्बित है किन्तु शिशु का ज्ञान-दर्शन मातापिता के ज्ञान-दर्शन से सर्वथा भिन्न है, ज्ञान-दर्शन ही जीव का लक्षण है अतः शिशु का जीव मातापिता के जीवों से भिन्न है।
परि. २, पृ. ४-आगम तथा अनुमान ये दोनों लौकिक विषयों में ही उपयुक्त होते हैं- अतीन्द्रिय विषयों में उन का उपयोग सम्भव नही ऐसा
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१) किंबहुना प्राचीन जैन परम्परा में प्रत्यक्ष ज्ञान अतीन्द्रिय ही माना है तथा इन्द्रियजन्य ज्ञान को परोक्ष कहा है । बाद में इन्द्रिय ज्ञान को प्रत्यक्ष माना गया वह व्यवहार की दृष्टि से था। २) अष्टसहस्त्री पृ.६३ प्राणिनामाद्यं चैतन्यं चैतन्योपादानकारणक चिद्विवर्तत्वात् मध्यचैतन्यविवर्तवत् । ३) सिद्धिविनिश्चय ४-१४ न पुनश्चेतनः चैतन्य विहाय विपरिवर्तते अचेतनः चेतनो भवन् संलक्ष्यते। ४) ऐतरेय ब्राह्मण ७-३-७ पतिर्जायां प्रविशति गर्भो भूत्वा स मातरम् । तस्यां पुनर्नवो भूत्वा दशमे मासि जायते ॥ तत् जाया जाया भवति यदस्यां जायते पुनः॥
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