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विश्वतत्त्वप्रकाशः
[३८भयेन हेतोयभिचारात्। कथम्। तस्योत्पत्तिमावेऽपि प्रकृतिपरिणामत्वाभावात् । ननु ज्ञानं प्रकृतिपरिणामः अनुभगन्यत्वे सत्युत्पत्तिमत्त्वात् पटादिवदिति चेत्र । ज्ञानस्यानुभवान्यत्वासिद्धः। तथा हि। शानमनुभवादन्यन्न भवति चेतनत्वात् व्य तेरेके पटादिवदिति । अथ ज्ञानस्य चेतनत्वमसिद्धमिति चेन्न। ज्ञानं चेतनम् अजडत्वात् स्वप्रतिबद्धव्यवहारे संशयादिव्युदासाय परानपेक्षत्वात् अर्थावयोधरूपत्वात् व्यतिरेके पटादिवत् इति ज्ञानस्य चेतनत्वसि द्वः। ननु ज्ञानं स्वतंबंध न भवति प्रकृतिविकृतित्वात् रूपादिवदिति चेन्न । शानस्य प्रकृतिविकातेवा. भावात् । कथं ज्ञानं न प्रकृ िविकृतिः चेतनत्वात् अजड वात् स्वप्रतिबद्धव्यवहारे संशयादिव्युदासाय परानपेक्षत्वात् अनुभववदिति। रूपादरी प्रकृतिविकृतित्वाभावात् साधन विकलो दृष्टान्तश्च । कुतस्तेषामहंकारजन्यत्वनिराकरणात् पञ्चभूतजनकत्वनिराकरणाच्च । तस्मात् शानं स्वतंवेधे स्वसंवेद्य नही है यह कहना उचित नही । ज्ञान को प्रकृति का परिणाम मानना ठीक नही । ज्ञान उत्पत्तियुक्त है अतः प्रकृति का परिणाम है यह कथन योग्य नही - सांख्य मत में अनुभव को उ पति"क्त तो माना है, किन्तु प्रकृति का परिणाम नही माना है। ज्ञान और अनुभव भिन्न नहीं हैं अतः ज्ञान को भी प्रकृति का परिणाम नही माना जा सकता । ज्ञान और अनुभव एकही है - वह चेतन है तथा उस के विषय के संशय को वही दूर कर सकता है । इसो प्रकार रूप आदि के समान ज्ञान को प्रकृति का विकार भी नहीं माना जा सकता क्यों कि वह चेतन है। दूसरे, रूप आदि भी प्रकृति के विकार-अहंकार से उत्पन्न या पंच महाभूतों के जनक नही हैं यह हम आगे स्पष्ट करेंगे । अतः ज्ञान के स्वसंपद्य होने में सांख्यों की आपति युक्त नही है।
१ सांख्यमते अनुभव उत्पत्ति मानस्तिपरंतु प्रकृतिपरिणामो नास्ति। २ यच्चननं न भवति तदजडं न भवति यथा पटादि। ३रूादीनां हां तनोकरः तस्मात् गुणश्च षोडशकः षोडशात् पञ्चभ्यः पञ्च भूतानि इत्युक्तत्वात् तच निराकरगन् अग्रे प्रतिपादितमस्ति ।
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