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-६८] इन्द्रियविचारः
२२७ अथ मतं-तेजोरूपा नयनरश्मयः अधिष्ठानभूताद् गोलकान्निर्गत्य धत्तूरकुसुमाकारेणोत्तरोत्तरं प्रसर्पन्तः पुरोऽवस्थितद्रव्येषु संयोगसंबन्धेन संबद्धाः सन्तो ज्ञानं जनयन्ति। तद्रव्यसमवेतगुणकर्मसामान्येषु संयुक्तसमवायेन संबन्धेन संबद्धाः सन्तो शानं जनयन्ति । गुणकर्मसमवेतसामान्येषु संयुक्तसमवेतसमवायसंबन्धेन संबद्धाः सन्तः संवित्ति जनयन्ति। तथा नाभसं श्रोत्रमपि स्वस्मिन् समवेतशब्देषु समवायसंबन्धेन संबद्धं सद् विज्ञानं जनयति । शब्दसमवेतसामान्येषु समवेतसमवायसंबन्धेन संबद्धं सत् संवित्तिं जनयति। एवमिन्द्रियैः पञ्चविधसंबन्धेन संबद्धपदार्थानां विशेषणविशेष्यत्वेन प्रवर्तमानयोदृश्याभाव. समवाययोः संबद्धविशेषणविशेष्यभावसंबन्धेन संबद्धाः सन्तः२ संवेदनं जनयन्तीतीन्द्रियाणामतीन्द्रियत्वेन सर्वेषां संमतत्वात् कथं चक्षुरिन्द्रियस्य घटपटादिपदार्थैः सह संनिकर्षाभावः प्रत्यक्षेण निश्चीयत इति । द्वारा सींप के स्थान में रजत का ज्ञान होता है-यहां रजत और चक्षुका सम्बन्ध न होने पर भी ज्ञान होता है । चक्षु के गोलक से सटे हुए पदार्थ को वह नही जान पाता -अतः चक्षु प्राप्यकारी नही है । घट, पट आदि पदार्थों से चक्षु का संपर्क नही होता यह बात प्रत्यक्षसिद्ध है अतः चक्षु को प्राप्यकारी मानना गलत है। न्याय मत का कथन है कि चक्षु के गोलक से तेजोरूप चक्षुकिरण निकलते हैं तथा वे उत्तरोत्तर धतूरे के फूल जैसे फैलते जाते हैं एवं सन्मुख स्थित पदार्थों से उन किरणों का संबन्ध होने पर ज्ञान होता है। इन किरणों का द्रव्यों से तो संयोग सम्बन्ध होता है; द्रव्यों में समवेत गुण, कर्म तथा सामान्य से संयुक्त समवाय सम्बन्ध होता है ; गुण तथा कर्म में समवेत सामान्य से संयुक्त समवेत समवाय सम्बन्ध होता है। इसी प्रकार आकाशनिर्मित कर्णेन्द्रिय का शब्द से समवाय सम्बन्ध होता है तथा शब्दत्व सामान्य से समवेत समवाय सम्बन्ध होता है। इन पांच प्रकारोंसें सम्बद्ध पदार्थों के विशषण विशेष्य रूप से दृश्याभाव तथा समवाय का ज्ञान होता है । इस प्रकार छह प्रकार का सम्बन्ध ही संनिकर्ष है । संनिकर्ष के विना इन्द्रियों से पदार्थों का ज्ञान नही होता ।
१ घटरहितं भूतलमिति दृश्याभावः इह तन्तुषु पटसमवायः इति समवायः अयं तु विशेषणविशेष्यभावः संनिकर्षः षष्ठः। २ नयनरश्मयः । ३ इन्द्रियम् इन्द्रियं न जानाति अतः अतीन्द्रियम् ।
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