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विश्वतत्त्वप्रकाशः
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संशयादिव्यवच्छेदेन मीयते निश्चीयते वस्तुतत्त्वं येन तत् प्रमाणमिति व्युत्पत्तेश्च । तच्च प्रमाणं प्रत्यक्षानुमानागमोपमानभेदाच्चतुर्विधमिति चेत् तत् तथैवास्तु । तदस्माभिरप्यङ्गीक्रियते । तत्र प्रत्यक्षं नाम कीदृक्षमिति वक्तव्यम् । सम्यगपरोक्षानुभवसाधनं प्रत्यक्षम् (व्यायसार पृ. ७) तच्चायोगिप्रत्यक्षं योगिप्रत्यक्षमिति द्विविधम् । तत्रायोगिप्रत्यक्षं प्रकाशदेशकालधर्माद्यनुग्रहादिन्द्रियार्थसंबन्धविशेषात् स्थूलार्थग्राहकम् । तद् यथा चक्षुःस्प र्शन संयोगात् पटादिद्रव्यज्ञानं, संयुक्तसमवायात् पटत्वादिसंख्यापरिमा णादिज्ञानं, संख्यादि श्रितानां सामान्यानां स्वाश्रयग्राहकैरिन्द्रियैः संयुक्तसमवेतसमवायाद् ग्रहणं, श्रोत्रे शब्दसमवायाच्छब्दग्रहणं तदाश्रितसामान्यय समवेतसमवायात् । तदेतत् पञ्चविधसंबन्धेन संबद्धपदार्थानां विशेषण विशेष्यत्वेन दृश्याभावसमवाययोर्ग्रहणम् । तद् यथा निर्घटं भूतलम्, इह भूतले घटो नास्तीति समवेतौ गुणगुणिनौ, इह पटे रूपादीनां समवाय इति । योगिप्रत्यक्षं तु देशकालस्वभावविप्रकृष्टार्थग्राहकम् । तद् द्विविधमपि प्रत्यक्षं सविकल्पकं निर्विकल्पकमिति प्रत्येकं द्विविधम् । तत्र संज्ञादिसंबन्धोरले. खेन' ज्ञानोत्पत्तिनिमित्तं सविकल्पकम् । यथा देवदत्तोऽयं दण्डीत्यादि । वस्तुस्वरूपमात्रावभासकं निर्विकल्पकम् । यथा
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कहा जाय
है ' किन्तु इन का पदार्थवर्णन भी उचित नही है । प्रथमतः उन के प्रमाणवर्णन का विचार करते हैं । सम्यक अनुभव का साधन प्रमाण है - यह उनका कथन है । इस में सम्यक कहने का तात्पर्य है कि अनुभव संशय या विपर्यय से रहित हो । अनुभव को प्रमाण कहने का तात्पर्य यह है कि स्मरण को प्रमाण न साधन इसलिए कहा है कि प्रमाता और प्रमेय को प्रमाण से अलग रखा जाय । प्रमाण शब्द की व्युत्पत्ति भी ऐसी ही है- प्रकर्ष से संशयादि को दूर कर वस्तुतत्त्व का मान- निश्चय करे वह प्रमाण है । इस के चार प्रकार हैं- प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, तथा उपमान । इन में प्रत्यक्ष का लक्षण इस प्रकार है- सम्यक अपरोक्ष अनुभव का साधन हो वह प्रत्यक्ष प्रमाण है - इस के दो प्रकार हैं-योगिप्रत्यक्ष तथा अयोगिप्रत्यक्ष । अयोगिप्रत्यक्ष वह है जो प्रकाश, देश, काल आदि के सहयोग से इन्द्रिय और पदार्थों के सम्बन्ध से स्थूल पदार्थों को
१ उच्चारण
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