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सांख्यदर्शनविचारः
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संभवस्य प्रागेव प्रमाणैः प्रतिपादितत्वात् । तस्मान्मीमांसकमते मोक्षो नास्तीति निश्चीयते ।
[ ८०. सांख्यसंमता सृष्टिप्रक्रिया । ]
अथ मतम् '
सखं लघु प्रकाशकमिष्टमवष्टम्भकं चलं च रजः । गुरुवरणकमेव तमः साम्यावस्था भवेत् प्रकृतिः ॥
[ सांख्यकारिका १३] तत्र यदि प्रकाशकं लघु तत् सखमुच्यते । सखोदयात् प्रशस्ता एव परिणामा जायन्ते । यच्च चलमवष्टम्भकं धारकं ग्राहकं वा तद् रज इति कथ्यते । रजस उदद्याद् रागपरिणामा एव जायन्ते । यद् गुरु आवरणकमज्ञानहेतुभूतं तत् तम इति निरूप्यते । तमस उदयाद् द्वेषाज्ञानपरिणामा एव जायन्ते । सखरजस्तमसां त्रयाणां साम्यावस्था प्रकृतिर्भवेत् । प्रकृतेर्महांस्ततोऽहंकारस्तस्माद् गणश्च षोडशकः । तस्मादपि षोडशकात् पञ्चभ्यः पञ्च भूतानि ॥
[ सांख्यकारिका २२]
मोक्ष के लिये तत्त्वों का यथार्थ ज्ञान आवश्यक है और प्राभाकर मत में वह सम्भव नही यह पहले स्पष्ट कर चुके हैं । अतः मीमांसक मत के अनुसरण से मुक्ति सम्भव नही है ।
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८०. सांख्यों की सृष्टि प्रक्रिया - अब सांख्य मत का विचार करते हैं । इन के मत से जगत में सत्त्व, रजस्, तमस् ये तीन गुण हैं । जो हलका, प्रकाशदायी हो वह सत्त्व है । जो चंचल, रोकनेवाला हो वह रजस् है । जो भारी, आच्छादित करनेवाला हो वह तमस् है । इन तीन गुणों की समता की अवस्था को प्रकृति कहते हैं । सत्व गुण के उदय से परिणाम प्रशस्त होते हैं । रजस् गुण के उदय से रागयुक्त परिणाम होते हैं । तमस् गुण के उदय से द्वेष तथा अज्ञानरूप परिणाम होते हैं । इन तीनों की साम्य अवस्था प्रकृति कहलाती है । इसी को जगत् की उत्पादिका, प्रधान, बहुधानक आदि नाम दिये गये हैं I प्रकृति से महान् उत्पन्न होता है। जन्म से मरण तक विद्यमान रहनेवाली बुद्धि को महान् कहते हैं । महान् से अहंकार उत्पन्न होता है -
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१ निरीश्वरसांख्यस्य ।
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